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कुवलयानन्दः
शक्यत्वात् । 'कर्पूरन्ती' इत्यत्र धर्मवाचकलोपः;कर्पूरमिवाचरन्तीत्यर्थे विहिलस्य कपूरवदानन्दात्मकाचारार्थकस्य किप् इवशब्देन सह लोपात् । अत्र धर्मलोप ऐच्छिकः नयनयोरानन्दात्मकतया कर्पूरन्तीति तदुपादानस्यापि संभवादिति | 'कान्त्या स्मरवधूयन्ती' इत्यत्र वाचकोपमेयलोपः । अत्र कान्त्येति विशेषणसामात्स्वात्मानं कामवधूमिवाचरन्तीत्यर्थस्य गम्यमानतया स्वात्मन उपमेयस्य सहोपमावाचकेनानुपादानात्स त्वैच्छिकः स्वात्मानं स्मरवधूयन्तीत्युपमेयोपादाधर्म का लोप है । यहाँ साधारण धर्म का लोप कवि की इच्छा पर आधत है, शास्त्रकृत नहीं। यदि कवि चाहता तो 'उसका मुख कान्ति से इन्दु के तुल्य है' यह भी कह सकता था। 'इन्दुतुल्यास्या' में 'इन्दु' उपमान, 'तुल्य' वाचक शब्द और 'आस्य' उपमान है। यहाँ भी उपमा समस्तपद में ही है।
३-धर्मवाचकलुप्ता :-इस भेद का उदाहरण 'कर्परन्ती' (कर्पर के समान आचरण करती) है। यहाँ 'कपूर' उपमान तथा नायिका उपमेय उपात्त हैं, आनन्दजनकत्वादि साधा. रणधर्म और इवादि वाचक शब्द का उपादान नहीं हुआ है। .
इस उदाहरण में धर्म तथा वाचक का लोप इसलिए माना गया है कि यहाँ 'कपूरन्ती' पद का 'कर्पूर के समान आचरण करती हुई' यह अर्थ लेने पर 'कर्पर के समान आनन्ददायक होने का आचरण करनेवाला' इस अर्थ का द्योतन करने के लिए विप प्रत्यय का प्रयोग होगा; वह प्रत्यय 'इव' शब्द के साथ लुप्त हो जाता है, भाव यह है 'कपूरमिव आचरति' व्युत्पत्ति से पहले क्विप् प्रत्यय लेंगाकर 'कर्पूरत्' रूप बनेगा, इस रूप में किप तथा इव दोनों का लोप हो जाता है। इसी का स्त्रीलिंग रूप 'कर्पूरन्ती' है । ( यदि कोई यह कहे कि यहाँ वाचक कालोपतो अवश्य है, किंतु साधारण धर्म का संकेत तो स्वयं विप् प्रत्यय दे रहा है, जो 'कपूर के समान आनन्ददायक आचरण' की प्रतीति करा रहा है तो यहाँ साधारणधर्म का लोप कैसे है ?, तो इस शंका का उत्तर यह है कि यद्यपि आनन्ददायक आचार का संकेत पाया जाता है, तथापि आनन्दत्यादि का विशेषण के रूप में उपादान नहीं हुआ है। इसलिए यहाँ धर्मलोप मानना ही होगा। नहीं तो इन्दुतुल्यास्या में धर्मलुप्तोदाहरण नहीं मानना पड़ेगा।) यहाँ आनन्दात्मकत्वादि धर्म का लोप शास्त्रकृत न होकर कवि की इच्छा पर निर्भर है। क्योंकि कवि चाहता तो 'नेत्रों को आनन्द देने के कारण, अथवा आनन्दात्मक होने के कारण, नेत्रों के लिए कपूर के समान शीतलता प्रदान करती' इस प्रकार साधारणधर्म का स्पष्ट उपादान भी कपूर कर सकता था।
धर्ममात्ररूपस्याचारस्योपादानेऽप्यानन्दत्वादिना विशेषणरूपेणानुपादानाद्धर्मलोपो युक्त एव । अन्यथा इन्दुतुल्यास्येत्यादेधर्मलुप्तोदाहरणस्यासंगतत्वापत्तेः।
वैद्यनाथः अलङ्कार चन्द्रिका ( कवलयानन्द टीका, पृ० ७ ) ४-वाचकोपनेयलुप्तः :-'कान्त्या स्मरवधूयन्ती' (कान्ति से कामदेव की पत्नी के समान आचरण करती) में वाचक शब्द तथा उपमेय का लोप है। यहाँ 'कान्ति रूप विशेषण सामर्थ्य (साधारणधर्म) से अपने आप को कामवधू के समान आचरण करती' इस अर्थ की प्रतीति के लिए यहाँ 'आत्म-रूप' उपमेय तथा उपमावाचक शब्द, दोनों का प्रयोग नहीं किया गया है, जो कवि का ऐच्छिक विधान है। इस उदाहरग को 'स्वात्मानं स्मरवधूयन्ती' (अपनी आत्मा को-अपने आप को-कामदेव की पत्नी रति के समान बनाती) बनाने पर उपमेय का प्रयोग संभव था।
५-उपमानलुप्ता :-('तदेतत्काकतालीयमवितर्कितसंभवम्' में उपमान तथा वाचक