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उपमालङ्कारः
नस्यापि संभवात् । 'काकतालीयम्' इत्यत्र काकतालशब्दौ वृत्तिविषये काकतालसमवेतक्रियावर्तिनौ, तेन काकागमनमिव तालपतनमिव काकतालमितीवार्थ 'समासाच्च तद्विषयात्' (पा. ५।३।१०६ ) इति ज्ञापकात्समासः । उभयत्रोपमेयं स्वस्य क्वचिद्गमनं तत्रैव रहसि तन्व्या अवस्थानं च | तेन स्वस्य तस्याश्च समागमः काकतालसमागमसदृश इति फलति । ततः 'काकतालमिव काकतालीयम्' इति द्वितीयस्मिन्निवार्थे 'समासाच्च तद्विषयात्' (पा. ५॥३।१०६ ) इति सूत्रेण 'इवे प्रतिकृतौ' ( पा. ५।३।९६ ) इत्यधिकारस्थेन छप्रत्ययः । तथा च पत. नदलितं तालफलं यथा काकेनोपभुक्तम् , एवं रहोदर्शनक्षुभितहृदया तन्वी स्वेनोपमुक्तेति तदर्थः। ततश्चात्र काकागमन-तालपतनसमागमरूपस्य काककृततालफलोपभोगरूपस्य चोपमानस्यानुपादानात्प्रत्ययार्थोपमायामुपमानलोपः, समासार्थोपमायां वाचकोपमानलोपः। सर्वोऽप्ययं लोपश्छप्रत्ययविधायकदोनों का लोप पाया जाता है। इसमें छ प्रत्यय के अनुसार प्रत्ययार्थोपमा मानने पर केवल उपमानलुप्ता है। समासार्थोपमा मानने पर वाचकोपमानलुप्ता।) ___ 'काकतालीयम्' इस शब्द में समास (वृत्ति) होने पर 'काक' तथा 'ताल' ये दोनों शब्द काक (कौआ) तथा ताल (साड का फल) इन दोनों के समागम से उत्पन्न समवेत क्रिया के द्योतक हैं। अतः यहाँ कौए के आगमन की तरह, ताल के फल के गिरने की तरह, होने वाला 'काकतालं' सिद्ध होता है, इस प्रकार इस इवार्थ (समानार्थ) में 'समासाच्च तद्विषयान्' (५।३।१०६) इस पाणिनि सूत्र के अनुसार समास हो गया है, अतः 'काकतालं' शब्द की व्युत्पत्ति यों होगी-'काकगमनमिव तालपतनमिव इति काकतालं'। यहाँ दोनों स्थानों पर इनका उपमेय अपना कहीं जाना और वहाँ एकान्त में सुन्दरी नायिका का मिलना है। तदनन्तर अपना और उसका मिलना काकताल समागम के समान है, इस अर्थ की प्रतीति होती है । इसके बाद 'काकतालं' शब्द से 'काकतालीयं' की सिद्धि होती है-'काकतालं इव काकतालीयं (जो काकताल की तरह हो)। इस दूसरे अर्थ में इवार्थ में उसी 'समासाच्च तद्विषयात्' (५।३।१०६) सूत्र से 'इवे प्रतिकृती' (५।३।९६) इस अधिकार सूत्र के द्वारा छ प्रत्यय का विधान होता है (काकताल+छ)। इस प्रकार निष्पन्न 'काकतालीयं' पद का अर्थ यह है कि जैसे कौए ने गिरने से टूटे फल को खाया, वैसे ही एकांत दर्शन से क्षुब्ध हृदयवाली सुन्दरी का उसने उपभोग किया। इस प्रकार कौए का आना तथा ताल के फल के गिरने का समागम रूप उपमान तथा कौए के द्वारा ताल फल का उपभोग रूप उपमान का साक्षात् प्रयोग न होने के कारण, छ प्रत्यय विधान के द्वारा निष्पन्न प्रत्ययार्थोपमा में उपमानलुप्ता उपमा है (यहाँ वाचक का लोप नहीं है, क्योंकि वह 'छ' (काकताल+छ = काकताल+ ईय) प्रत्यय के द्वारा प्रयुक्त हुआ है। 'काकतालं' इस पद में समासार्थोपमा है, इसमें 'समासाच्च तद्विषयात्' के अनुसार उपमावाचक शब्द समास में लुप्त हो गया है, अतः यह वाचकोफ्मानलुप्ता है । (यहाँ उपमेय 'एतत्' तथा साधारण धर्म 'अवितर्कितसंभवम्' दोनों का प्रयोग पाया जाता है।) यह समस्त लोप छ प्रत्यय के कारण है, अतः यह शास्त्रकृत है।
६--वाचकोपमानलुप्ता:-इसका उदाहरण भी तदेतत्काकतालीयमवितर्कितसंभवम्' है। (इसकी संगति ऊपर दिखा दी गई है।) यहाँ समासार्थोपमा में वाचकोपमानलुप्ता है।
७-धर्मोपमानलुप्ताः-(इसका उदाहरण 'तदेतत्काकतालीयमभवत्किं ब्रवीमि ते है।)