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॥ श्रीः ॥
कुवलयानन्दः
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॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
अमरीकबरीभारभ्रमरीमुखरीकृतम् । दूरीकरोतु दुरितं गौरीचरणपङ्कजम् ॥ १ ॥ परस्परतपःसम्पत्फलायितपरस्परौ । प्रपञ्चमातापितरौ प्राचौ जायापती स्तुमः ॥ २ ॥
प्राप्ति कार्य की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिये कुवलयानन्दकार पहले इष्टदेवता का स्मरण करते हैं: --
१ - चरणों में नमस्कार करती हुई देवताओं की रमणियों के केशपाश रूपी भौरियों के द्वारा गुञ्जायमान, देवी पार्वती के चरणकमल पाप का निवारण करें ।
( यहाँ 'चरण- पंकज' में परिणाम अलंकार है, रूपक नहीं, क्योंकि कमल में स्वयं पाप का निवारण करने की क्षमता तो है नहीं, अतः उसे चरण के रूप में परिणत होकर ही पाप का निवारण करना होगा । यहाँ 'कमल के समान चरण' (चरणं पङ्कजमिव ) यह उपमा भी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि देव रमणियों के केशपाश पर भ्रमरी का जो आरोप किया गया है, वह कमल की सुगन्ध से ही सम्बन्ध रखता है, केवल चरणों से नहीं । सुगन्ध से लुब्ध भ्रमरी के द्वारा गुञ्जित होना, यह विशेषण केवल 'कमल' में ही घटित हो सकता है, चरण में नहीं । यहाँ देव- रमणियों तथा कवि की पार्वती विषयक रति पुष्ट हो रही है, अतः प्रेयस् नामक अलङ्कार भी है । )
टिप्पणी- शुद्ध ध्वनिवादी के मत से यहाँ प्रेय अलङ्कार न होकर 'रति' नामक भावध्वनि व्यञ्जित हो रही है, यह ध्यान देने योग्य है ।
२- हम उन पुरातन दम्पती शिव-पार्वती की स्तुति करते हैं, जो इस समस्त सांसारिक प्रपञ्च के माता-पिता हैं और जिन्होंने अपनी तपस्या के फल के समान एक दूसरे को प्राप्त किया है।
माता-पिता मानने में
( यहां 'फलायित' पद के द्वारा शिव तथा पार्वती को परस्पर एक दूसरे की तपःसमृद्धि के फल से उपमा दी गई है। इसी तरह उन्हें संसार के टीकाकार वैद्यनाथ ने रूपक अलङ्कार माना है । इस प्रकार इस पद्य संसृष्टि है। इसके साथ ही 'फलायित' इस एक ही पद के द्वारा दो हैं, एक ओर शिव पार्वती की तपस्या के फल के समान हैं, शिव की तपस्या के फल के समान हैं। एक ही पद के
में
उपमा तथा रूपक की उपमाएँ प्रकट हो रही दूसरी ओर पार्वती द्वारा इन दो उपमाओं