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कुवलयानन्दः
उद्घाट्य योगकलया हृदयाब्जकोशं धन्यैश्चिरादपि यथारुचि गृह्यमाणः । यः प्रस्फुरत्यविरतं परिपूर्णरूपः श्रेयः स मे दिशतु शाश्वतिकं मुकुन्दः ।। ३ ।।
अलङ्कारेषु बालानामवगाहनसिद्धये । ललितः क्रियते तेषां लक्ष्यलक्षणसंग्रहः ॥ ४ ॥ येषां चन्द्रालोके दृश्यन्ते लक्ष्यलक्षणश्लोकाः । प्रायस्त एव तेषामितरेषां त्वभिनवा विरच्यन्ते ।। ५ ।।
१ उपमालङ्कारः उपमा यत्र सादृश्यलक्ष्मीरुल्लसति द्वयोः ।
हंसीव कृष्ण ! ते कीर्तिः स्वर्गङ्गामवगाहते ॥ ६॥ यत्रोपमानोपमेययोः सहृदयहृदयाह्नादकत्वेन चारुसादृश्यमुद्भूततयोल्लसति व्यङ्गथमर्यादां विना स्पष्टं प्रकाशते तत्रोपमालङ्कारः । हंसीवेत्युदाहरणम् । इयं का कथन एकवाचकानुप्रवेशरूप सक्कर को जन्म देता है। इस प्रकार इस पद्य में सङ्कर और संसृष्टि दोनों अलङ्कार हैं।) - ३-अत्यधिक धन्य योगियों के द्वारा योगशक्ति से हृदय-कमल को उद्घाटित कर जिन परब्रह्मरूप मुकुन्द का यथेच्छ अनुशीलन किया जाता है, वे परिपूर्णरूप मुकुन्द जो निरन्तर प्रकाशित रहते हैं, मुझे शाश्वत श्रेय प्रदान करें। __ (टीकाकार ने यहां परिपूर्णरूप ब्रह्म के 'प्रस्फुरण' में विरोध माना है, और उसका परिहार इस तरह किया है कि यहां ब्रह्म के उपासनात्मक रूप की कल्पना है। अथवा योगियों के द्वारा भी ब्रह्म अचिन्त्य है, इस माहात्म्य का वर्णन करना अभीष्ट है। यहां योगियों की भगवद्विषयक रति कविगत रति का अङ्ग है, अतः प्रेयस् अलङ्कार है।)
४-अलङ्कार शास्त्र में अव्युत्पन्न (बालानां) व्यक्तियों को अलङ्कारज्ञान हो जाय, इस फल की सिद्धि के लिए, हम इस ग्रन्थ में अलङ्कार के लक्षण और उदाहरण का सुन्दर संग्रह कर रहे हैं।
५-पीयूषवर्ष जयदेव के 'चन्द्रालोक' में जिन अलङ्कारों के लक्ष्य-लक्षण श्लोक हैं, हमने कुवलयानन्द में उन्हीं पधों को रक्खा है, अन्य अलङ्कारों के लक्षण और उदाहरणों को हमने नया संनिविष्ट किया है।
१. उपमालङ्कार ६-जहाँ दो वस्तुओं (द्वयोः)-उपमान और उपमेय-की समानता से विशिष्ट शोभा अर्थात् दो वस्तुओं के सादृश्य पर आधुत चमत्कार पाया जाय, वहाँ उपमा अलङ्कार होता है । जैसे; हे कृष्ण, तेरी कीर्ति हंसिनी की तरह आकाशगङ्गा में अवगाहन कर रही है।
जिस काव्य में उपमेय (वर्ण्यविषय, कामिनीमुखादि) तथा उपमान (चन्द्रादि) को सुन्दरता की समानता, सहृदयभावुकों केहृदय को आह्लादित करती है और वह चारुसादृश्य ( दोनों की वह चमत्काराधायक समानता) उल्लसित होता है, अर्थात् व्यञ्जना. शक्ति (व्यंग्यमर्यादा) के बिना ही स्पष्ट प्रकाशित होता है, वहाँ उपमा अलङ्कार होता है। भाव यह है, उपमा अलवार वहाँ होगा, जहाँ दोनों विषयों में कोई ऐसी समानता बताई जाय, जो चमत्कृतिजनक हो और सहृदय को आह्लादित कर सके, साथ ही यह