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या विशेषणसाम्य के कारण ही सहृदय को अप्रकृत व्यवहार की स्फुरणा हो जाती है तथा वह प्रकृत पर अप्रकृत का व्यवहार समारोप कर लेता है । यदि उक्त एकदेशविवर्तिरूपक में से कवि उस अप्रकृतांश को भी निकाल दे तो समासोक्ति हो जायगी। हम एक पद्य ले लें
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निरीचय विद्युन्नयनैः पयोदो मुखं निशायामभिसारिकायाः । धारानिपातैः सह किं नु वान्तश्चन्द्रोऽयमित्यार्ततरं ररास ॥
यहाँ 'विद्युन्नयनैः' में एकदेशविवर्ति रूपक होने से सहृदय 'बादल' पर 'द्रष्टा - पुरुष' ( देखने वाले) का आरोप कर लेना है । यह आरोप 'नयन' पद के प्रयोग के कारण आक्षिप्त होता है । यदि ‘'विद्युद्यतिभिः' पाठ कर दिया जाय, तो यहाँ रूपक अलंकार का कोई रेशा न रहेगा, तथा यहाँ समासोक्ति हो जायगी ।
(१६) परिकर - परिकरांकुर
( १ ) परिकर अलंकार में कवि किसी साभिप्राय विशेषण का प्रयोग करता है ।
( २ ) साभिप्राय विशेषणों के होने पर इस अलंकार में विशेष चमत्कार पाया जाता है । कुछ आलंकारिकों (पंडितराज आदि ) के मत से अनेक साभिप्राय विशेषणों के होने पर ही यह अलंकार होत' है । अप्पय दीक्षित एक साभिप्राय विशेषण में भी इस अलंकार को मानते हैं । ( ३ ) परिकरालंकार में कवि इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग करता है कि उससे कोई व्यंग्यार्थं प्रतीत होता है, जो स्वयं वाच्यार्थ का उपस्कारक होता है ।
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( ४ ) परिकरांकुर अलंकार की कल्पना केवल एकावलीकार विद्यानाथ तथा दीक्षित में ही मिलती है । इसमें कवि साभिप्राय विशेष्य का प्रयोग करता है । अन्य आलंकारिक इसे भी परिकर में ही अन्तर्भूत मानते हैं ।
( १७ ) श्लेष
( १ ) इलेष गम्यौपम्याश्रय अर्थालंकार है ।
( २ ) इसमें कवि इस प्रकार के काव्यवाक्य का प्रयोग करता है, जिससे सदा दो अर्थों की प्रतीति होती है, ये दोनों अर्थ वाच्यार्थ होते हैं ।
( ३ ) मम्मटादि के मत से ये दोनों अर्थं या तो प्रकृत हो सकते हैं, या अप्रकृत; किन्तु दीक्षित ने श्लेष का एक तीसरा भेद भी माना है जिसमें एक अर्थ प्रकृत होता है दूसरा अप्रकृत । मम्मटादि इस भेद में इलेष अलंकार न मानकर अभिधामूला शाब्दी व्यंजना मानते हैं ।
( ४ ) इलेषालंकार में विशेषण तथा विशेष्य दोनों श्लिष्ट होते हैं ।
(५) मम्मटादि के मत से श्लेष अर्थालंकार तभी माना जायगा, जब कि वाक्य में प्रयुक्त शब्द पर्याय परिवृत्तिसह हों, अन्यथा वहाँ शब्दश्लेष अलंकार होगा । दीक्षित के मत से इलेष अलंकार में पर्याय परिवृत्तिसहत्त्व आवश्यक नहीं हैं, यह उनके उदाहरणों से स्पष्ट है ।
श्लेष तथा समासोक्ति - दे. समासोक्ति ।
(१८) अप्रस्तुतप्रशंसा
( १ ) अप्रस्तुतप्रशंसा गम्यौपम्याश्रय अर्थालंकार है ।
( २ ) इसमें सदा दो अर्थों की प्रतीति होती हैं, एक वाच्यार्थ दूसरा व्यंग्यार्थं ।
( ३ ) वाच्यार्थ अप्रकृतपरक होता है, व्यंग्यार्थ प्रकृतपरक होता है ।