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प्रतीप तथा व्यतिरेक - ३० व्यतिरेक |
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प्रतीप तथा उपमा : जैसा कि 'प्रतीप' के नाम की व्युत्पत्ति से ही स्पष्ट है, इसका अर्थ है 'उलटा ' अर्थात् यह 'उपमा' का ठीक विरोधी अलंकार है । उपमा का उपमानोपमेयभाव प्रतीप अलंकार में ठीक उलटा हो जाता है । जो उपमा में उपमेय ( मुखादि ) होता है, वही प्रतीप में उपमान होता है तथा जो उपमा में उपमान (चन्द्रादि ) होता है, वही प्रतीप में उपमेय होता है । दूसरे शब्दों में, उपमा में वर्ण्य या प्रस्तुत उपमेय होता है, अवर्ण्य या अप्रस्तुत उपमान होता है । जब कि प्रतीप में अवर्ण्य या अप्रस्तुत उपमेय होता है, वर्ण्य या प्रस्तुत उपमान । केवल दो पदार्थों की सादृश्यकल्पना मात्र में उपमा अलंकार मानने वालों के मत से प्रतीप अलग से अलंकार न होकर उपमा का ही एक प्ररोह है। पंडितराज जगन्नाथ प्रतीप का समावेश उपग में ही करते हैं । ( मुखमिव चन्द्र इति प्रतीपे, चन्द्र इव मुखं मुखमिव चन्द्र इत्युपमेयोपमायां च सादृश्यस्य चमत्कारित्वाच्चातिप्रसंगः शंकनीयः, तयोः संग्राह्यत्वात् । - रसगंगाधर पृ० २०४ - ५ ) नागेश ने पंडितराज के द्वारा प्रतीप को उपमा का ही अंग मानने का खंडन किया है। वे बताते हैं कि उपमा तथा प्रतीप का चमत्कार भिन्न-भिन्न प्रकार का है। हम देखते हैं कि प्रतीप का चमत्कार उपमान के तिरस्कार में पर्यवसित होता है, जब कि उपमा का चमत्कार दो पदार्थों की सादृश्य बुद्धि पर आश्रित है । अतः प्रतीप का उपमा में अन्तर्भाव मानना ठीक नहीं । ( 'अहमेत्र गुरुः ' - इति प्रतीपेऽपि उपमानतिरस्कृतस्वकृत एव सः, न तुसादृश्यबुद्धिकृत इति न तत्रापि तत्वम् । अलंकारभेदे च चमत्कारभेद एव निदानम् । - रसगंगाधरटीका गुरुमर्मप्रकाश पृ० २०५ ) हमें नागेश का मत ही ठोक जँचता है, प्रतीप का उपमा अन्तर्भाव मानना ठीक नहीं ।
(१४) सहोक्ति-विनोक्ति
सहो कि :
( १ ) सहोक्ति भी गम्यौपम्याश्रय अलंकार है ।
) सहोक्ति में अनेक पदार्थों के साथ एक ही धर्म का उल्लेख होता है। इनमें एक पदार्थ (धर्मी ) सदा प्रधान होता है, अन्य पदार्थ ( धर्मी ) गौण होते हैं । प्रधान धर्मी का प्रयोग कर्ता कारक में तथा गौण धर्मी का प्रयोग करण कारक में होता है :- 'कुमुददलैः सह संप्रति faced चक्राकमिथुनानि' में 'चक्रवाकमिथुनानि' प्रधान धर्मी हैं, कुमुददल गौण धर्मी, विघटनक्रिया समान धम है ।
( ३ ) इनमें प्रायः प्रधान धर्मी उपमेय तथा गौण धर्मी उपमान होता है, किंतु कभी-कभी उपमान कर्ता कारक में तथा उपमेय करण कारक में भी हो सकता है, जैसे 'अस्तं भास्वान् प्रयातः सह रिपुभिरयं संहियतां बलानि' में ।
( ४ ) सहांक्ति के वाचक शब्द सह, साकं, सार्धं, समं, सजुः आदि हैं, किंतु कभी-कभी बाचक शब्द के अभाव में भी सहार्थविवक्षा होने पर सहोक्ति हो सकती है ।
( ५ ) सहोक्ति तभी हो सकेगी, जब सहार्थविवक्षा में चमत्कार हो, अतः 'अनेन सार्धं विहराम्बुराशेः तीरेषु तालीवनमर्मरेषु' में सहोक्ति नहीं है, क्योंकि वहाँ कोई चमत्कार नहीं
पाया जाता ।
( ६ ) सहोक्ति अलंकार में सभी धर्मी प्रकृत होते हैं ।
(७) सहोक्ति अलंकार में सदा बीजरूप में अतिशयोक्ति अलंकार पाया जाता है ।