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[ ७६ ] तीसरे, यद्यपि दोनों में विंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है तथापि निदर्शना में प्रकृताप्रकृत के विवप्रतिबिंबभाव का आक्षेप किये बिना वाक्यार्थप्रतीति पूर्ण नहीं हो पाती, जब कि दृष्टान्त में वाक्यार्थप्रतीति पूर्ण हो जाती है, तदनंतर वाक्यार्थ के सामर्थ्य से प्रकृताप्रकृत के बिंबप्रतिबिंबभाव की प्रतीति होती है।
(१२) व्यतिरेक (१) जहाँ उपमेय का उपमान से आधिक्य या न्यूनता वर्णित की जाती है। इस संबंध में इसना संकेत कर दिया जाय कि मम्मट तथा पंडितराज जगन्नाथ केवल उपमेय के आविष्य में ही व्यतिरेक मानते हैं, जब कि रुय्यक तथा दीक्षित उपमान के आधिक्य वर्णन (उपमेय के न्यूनता वर्णन ) में भी व्यतिरेक अलंकार मानते हैं।
(२) व्यतिरेक के तीन प्रकार होते हैं :-उपमैयाधिक्यपर्यवसायी, उपमेयन्यूनत्वपर्यवसायी, अनुभयपर्यवसायी।
(३) उपमेय तथा उपमान के उत्कर्षहेतु तथा अपकर्षहेतु दोनों का अथवा किसी एक का निर्देश हो अथवा दोनों के प्रसिद्ध होने के कारण उनका अनुपादान भी हो सकता है।
(४) उत्कर्ष-अपकर्षहेतु को श्लेष के द्वारा भी निर्दिष्ट किया जा सकता है, जहाँ उपमेयपक्ष में अन्य अर्थ होगा, उपमानपक्ष में अन्य, जिनमें एक उत्कर्षहेतु होगा अन्य अपकर्षहेतु ।
(५) यद्यपि व्यतिरेक में दो पदार्थों में भिन्नता बताई जाती है, तथापि कवि उनके सादृश्य की व्यंजना कराना चाहता है।
म्यतिरेक तथा प्रतीप-दोनों ही अलंकारों में कवि इस बात की व्यंजना कराना चाहता है कि उपमान तथा उपमेय की परस्पर तुलना नहीं की जा सकती। उपमेयाधिक्यपर्यवसायी व्यतिरेक तथा प्रतीप दोनों में उपमेय के उत्कर्ष को घोतित किया जाता है, किंतु दोनों की प्रणाली भिन्न होती है। न्यतिरेक में उपमान की भर्त्सना नहीं की जाती, जब कि प्रथम प्रतीप में उपमान की व्यर्थता सिद्धकर उसकी भर्त्सना की जाती है। व्यतिरेक उपमा के ही ढंग का होता है, जब कि प्रथम प्रतीप की शैली उपमा वाली नहीं होती। ..
(१३) प्रतीप (१) व्यतिरेक की भाँति यह भी साधर्म्यमूलक अलंकार है। (२) कवि का ध्येय उपमान से उपमेय की उत्कृष्टता घोतित करना होता है। (३) उपमेय की उत्कृष्टता कई ढंग से बताई जाती है। ( क ) उपमान की निकृष्टता बताने के लिए स्वयं उपमान को ही उपमेय बना दिया जाता है,
(प्रथम प्रतीप) (ख ) उपमान को उपमेय बनाकर वर्णनीय ( उपमेय ) मुखादि का अनादर किया जाता है,
(द्वितीय प्रतीप) (ग) वर्ण्य (प्रकृत ) को उपमान बनाकर उसका अनादर करते हुए इस बात का संकेत किया जाता है कि अप्रकृत को अपने तुल्य कृत पदार्थ प्रमिल गया है । ( तृतीय प्रतीप) . (५) वर्ण्य ( उपमेय) द्वारा अवयं को दी गई उपमा झूठो बताई जाती है। (चतुर्थ प्रतीप)
(0) उपमान की व्यर्थता बता कर इस बात का संकेत किया जाता है कि उपमेय के होते हुए उपमान की जरूरत ही क्या है। (पंचम प्रतीप)