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(२२) आक्षेप (१) आक्षेप अलंकार में वक्ता सदा कोई बात कहता है या कहने जाता है । (२) इसी बीच वह अपने वक्तव्य का, जिसे वह या तो पूरा कह चुका होता है ( उक्तविषय)
या जिसे पूरा कहना अभी बाकी है ( वक्ष्यमाणविषय ), निषेध करता है । (३) यह निषेध या तो उक्तविषय से संबद्ध हो सकता है या वक्ष्यमाणविषय से अथवा वह
वर्ण्यविषय से संबद्ध किसी अन्य वस्तु से संबद्ध हो सकता है। (४) यह निषेध वास्तविक न होकर केवल निषेधामास हो अर्थात् बाहर से वह निषेध प्रतीत
हो, किन्तु वक्ता का अभिप्राय निषेध करने का न हो। (५) इस निषेधामास के द्वारा किसी विशेष अर्थ की व्यञ्जना कराई जाय ।
(२३) विरोधाभास (१) यह विरोधगर्भ अलंकार है। (२) इस अलंकार में सदा आपाततः दो परस्पर विरोधी वस्तुओं का एक ही आश्रय में वर्णन
किया जाता है। (३) यह विरोध वास्तविक न होकर केवल आभास हो । (४) आभासमात्र होने से इस विरोध का परिहार किया जा सकता है। (५) विरोधाभास श्लेष पर भी आश्रित हो सकता है किन्तु इसके लिए श्लेष का होना
अनिवार्य नहीं है। (६) विरोधाभास का वाचक शब्द 'अपि' है, किन्तु इसके बिना भी विरोधाभास हो
सकता है। (७) कुछ भालंकारिक ( मम्मटादि ) विरोधाभास को विरोध कहते हैं।
विरोधाभास तथा विभावना-विशेषोकि:-विरोधाभास की भाँति विभावना तथा विशेषोक्ति में दो पदार्थों में परस्पर विरोध देखा जाता है । इनमें परस्पर यह भेद है कि (१) विरोधा. मास में यह विरोध कार्यकारणभाव से सम्बद्ध न होकर द्रव्य, गुण, क्रिया या जाति गत होता है, जब कि विभावना एवं विशेषोक्ति में विरोध कार्यकारणमूलक होता है, (२) दूसरे, विभावनाविशेषोक्ति में हमें एक ही विरुद्ध तत्त्व चमत्कृत करता है, विभावना में यह 'फलसत्त्व होता है, विशेषोक्ति में फलामाव, किंतु विरोधामास में दोनों ही तत्त्व एक दूसरे से विरुद्ध होने के कारण चमत्कृत करते हैं।
(२४ ) विभावना-विशेषोक्ति विभावना:
(१) इसमें किसी विशेष कारण के अभाव में भी कार्योत्पत्ति का वर्णन किया जाता है। (२) कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति का वर्णन वास्तविक न होकर केवल कविप्रतिमोत्यापित
होता है, दूसरे शब्दों में यह भी एक विरोधाभास है। (३) यह कार्योत्पत्ति किसी अन्य कारण से होती दिखाई जाती है, जिसकी प्रतीति सहृदय
को हो जाती है। (४) कवि कभी वास्तविक हेतु का वर्णन करता है, कभी नहीं।