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(५) संभावना के वाचक शब्द - इव, मन्ये, ध्रुवं आदि का प्रयोग करने पर वाच्या उत्प्रेक्षा होती है । वाचक शब्द का अनुपादान होने पर गम्या या प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा होती है, जैसे इस पंक्ति में – 'स्वस्कीर्तिर्भ्रमणश्रान्ता विवेश स्वर्गनिम्नगाम्' ।
उत्प्रेक्षा तथा उपमा ( देखिये, उपमा ) ।
उत्प्रेक्षा तथा रूपक - ( देखिये, रूपक ) ।
उत्प्रेक्षा तथा संदेह—दोनों संशयमूलक अलंकार हैं, जिनमें किसी एक पक्ष का पूर्णं निश्चय नहीं हो पाता । यह मुख है या चन्द्रमा है, इस तरह की अनिश्चितता दोनों में रहती है, किंतु भेद यह है कि संदेह में दोनों पक्ष समान होते हैं, अतः चित्तवृत्ति को किसी एक पक्ष का मोह नहीं होता । उत्प्रेक्षा में चित्तवृत्ति को उपमानपक्ष का मोह रहता है, उपमान के प्रति उसका विशेष झुकाव होता है। इसी को 'मन्ये, शंके' आदि के द्वारा व्यक्त करते हैं ।
उत्प्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति -- दोनों अध्यवसायमूलक अलंकार हैं। अतिशयोक्ति में अध्यवसाय के सिद्ध होने के कारण विषयी विषय का निगरण कर लेता है, अतः विषय का स्वशब्दतः उपादान नहीं होता । उत्प्रेक्षा में अध्यवसाय साध्य होने के कारण विषय का उपादान होता है । वस्तुतः उत्प्रेक्षा, संदेह तथा अतिशयोक्ति की वह मध्यवर्ती स्थिति है, जब संशय को छोड़ने के लिए चित्तवृत्ति धीरे-धीरे उपमान की ओर झुकने लगती हैं। जब वह पूरी तरह उपमानपक्ष की ओर झुक जाती है तथा उत्प्रेक्षा या सन्देह बिलकुल नहीं रहता तो अतिशयोक्ति हो जाती है । इस तरह उत्प्रेक्षा में किसी सीमा तक अनिश्चितता पाई जाती है, जब कि अतिशयोक्ति में उपमानत्व ( चन्द्रत्व ) का पूर्ण निश्चय होता है । इतना संकेत कर देना आवश्यक होगा कि दोनों अलंकारों में साधर्म्यकल्पना आहार्य होती है ।
( ४ ) अतिशयोक्ति
( १ ) अतिशयोक्ति अलंकार के पाँच भेद होते हैं, इनमें प्रथम चार भेद सादृश्यमूलक हैं, पाँचवा भेद कार्यकारणमूलक ।
( २ ) अतिशयोक्ति अभेदप्रधान अध्यवसायमूलक अलंकार है, जिसमें अध्यवसाय ( विषयी के द्वारा विषय का निगरण ) सिद्ध होता है ।
( ३ ) अतिशयोक्ति के समस्त भेद आहार्यज्ञान पर आश्रित होते हैं ।
( ४ ) अतिशयोक्ति के प्रथम भेद में भिन्न वस्तुओं में सादृश्य के आधार पर अभिन्नता स्थापित की जाती है । यहाँ साध्यावसाना गौणी लक्षणा पाई जाती है ।
( ५ ) अतिशयोक्ति के दूसरे भेद में अभिन्न वस्तु में ही 'अन्यत्व' की कल्पना कर भिन्नता स्थापित की जाती है ।
(६) अतिशयोक्ति के तीसरे भेद में दो वस्तुओं में परस्पर संबंध के होते हुए भी असंबंध की कल्पना की जाती है ।
(७) अतिशयोक्ति के चौथे भेद में दो वस्तुओं में परस्पर कोई वास्तविक संबंध न होते हुए अी संबंध कल्पना की जाती है ।
( ८ ) अतिशयोक्ति के पाँचवे भेद में कारण तथा कार्य के पौर्वापर्य का व्यतिक्रम कर दिया जाता है या तो कारण तथा कार्य की सहभाविता वर्णित की जाती है, या कार्य की प्राग्भाविता । दीक्षित ने इस भेद को दो भेदों में बाँटकर अत्यन्तातिशयोक्ति तथा चपलातिशयोक्ति की कल्पना कर डाली है । इस तरह दीक्षित के मत से अतिशयोक्ति के छः भेद होते हैं ।