________________
[ ६६ ] (३) यह आरोप सदा आहार्य या कविकस्थित होना चाहिए; स्वारसिक ( वास्तविक) या अनाहार्य नहीं -
- (४) 'आरोपसदा चमत्कारी हो, ऐसा न होने पर 'गौर्वाहीका की तरह रूपक अलंकार
न हो सकेगा। (५) उपमेय पर उपमान का आरोप श्रौत या शाद हो, आ नहीं। अर्थगत होने
पर रूपक न होकर निदर्शना अलंकार हो जायगा। (१) रूपक में साधारण धर्म सदा स्पष्ट होना चाहिए। प्रायः रूपक में साधारण धर्म का प्रयोग नहीं किया जाता, किंतु कभी-कभी किया भी जा सकता है, जैसे इस पडि में-'नरानम्ब जापान त्रातुं स्वमिह परमं भेषजमसि ।'
रूपक तथा उपमा- देखिये, उपमा ),
रूपक तथा उरमेहा-रूपक में कवि यह मानते हुए भी मुख चन्द्रमा नहीं है, उनके अनिसाम्य के कारण मुखपर चन्द्रमा का आरोप कर देता है । इस स्थिति में उसकी चित्तवृत्ति में अनिश्चितता नहीं पाई जाती। उत्प्रेक्षा में कवि की चित्तवृत्ति किसी एक निश्चय पर नहीं पहुँच पाती. यद्यपि उसका विशेष आकर्षण 'चन्द्रमा के प्रति होती है। उत्प्रेक्षा भी एक प्रकार का संशय ( संदेह ) ही है, पर इस संशयावस्था में दोनों पक्ष समान नहीं रहते, बल्कि उपमानपक्ष बलवान् होता है । इसीलिए उत्प्रेक्षा को 'उत्कटकको टिकः संशयः' कहा जाता है।
रूपक तथा संदेह-रूपक में कवि की चित्तवृत्ति अनिश्चित नहीं रहती, जब कि संदेह में वह अनेक पक्षों में दोलायित रहती है ।
रूपक तथा स्मरण-दोनों सादृश्यमूलक अलंकार है। रूपक में एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जाता है, जब कि स्मरण में सदृश वस्तु को देखकर पूर्वानुभूत वस्तु की स्मृति हो आती है । स्मरण में उपमान को देखकर उपमेय की या उपमेय को देखकर उपमान की अथवा तत्संबद्ध वस्तु की भी स्मृति हो सकती है, किंतु रूपक में उपमेयः ही आरोपविषय हो सकता है।
" रूपक तथा अतिशयोकि-अतिशयोक्ति के प्रथम भेद (भेदे अभेदरूपा अतिशयोक्ति) से रूपक में यह समानता है कि दोनों अभेदप्रधान अलंकार हैं। किंतु रूपक में ताप्य पाया जाता है, जब कि अतिशयोक्ति में अध्यवसाय होता है, अर्थात् अतिशयोक्ति में विषयी (चन्द्र) विषय (मुख) का निगरण कर लेता है। रूपक में गौणी सारोपा लक्षणा होती है, तो अतिशयोक्ति में गौणी साध्यवसाना लक्षणा। रूपक तथा निदर्शना-( देखिये, निदर्शना)।
(३) उत्प्रेक्षा (१) यह अभेदप्रधान साधर्म्यमूलक अलंकार है।
( २ ) इसमें अतिशयोक्ति की तरह विषयी विषय का अध्यवसाय करता है; किन्तु उससे इसमें यह भेद है कि अतिशयोक्ति में अध्यवसाय सिद्ध होता है, उत्प्रेक्षा में साध्य, यही कारण है कि यहाँ दोनों का स्वशम्दतः उपादान होता है। .............
(३) यहाँ स्वरूप, हेतु या फल को अन्य रूप में संभावित किया जाता है। (४) यह संभावना सदा आहार्य या कल्पित होती है।