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(५) रूपक भेदाभेद प्रधान अलंकारों का विवेचन करने के बाद दीक्षित ने अभेदप्रधान रूपक अलंकार का विवेचन किया है । यहाँ भी दीक्षित ने पहले प्राचीनों का निम्न लक्षण देकर उसकी सदोषता बताई है।
'जहाँ आरोप्यमाण (विषयी, चन्द्रादि ) अतिरोहितरूप (अर्थात् जिसका तिरोधान न किया जाय) आरोपविषय (मुखादि) को अपने रंग में रंग दे, वहाँ रूपक अलंकार होता है।'
आरोपविषयस्य स्यादतिरोहितरूपिणः ।
उपराकमारोप्यमाणं तद्रूपकं मतम् ॥ (चित्र० पृ० ५२) इस लक्षण में निम्न बातें पाई जाती हैं :
(१)विषयी आरोप विषय का उपरंजक हो, अर्थात् दोनों में अभेद स्थापना हो तथा विषय का उपादान किया जाय । इससे इस लक्षण में उत्प्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति की अतिव्याप्ति न हो सकेगी, क्योंकि उत्प्रेक्षा में विषय, आरोप क्रिया का विषय ( आरोपविषय) नहीं होता, तथा अतिशयोक्ति में विषयी विषय का निगरण कर लेता है। अतः दोनों ही में आरोप नहीं होता।
(२) 'अतिरोहितरूपिणः' पद के द्वारा संदेह, भ्रांतिमान् तथा अपहति का वारण किया गया है, क्योंकि संदेह, भ्रांतिमान् अथवा अपहुति में क्रमशः विषय का संदेह, अनाहार्य मिथ्याशान अथवा निषेध पाया जाता है। अतः वहाँ विषय (मुखादि ) का 'विषयत्व' (मुखत्वादि ) तिरोहित रहता है।
(३) 'उपरक्षक' पद के द्वार। समासोक्ति तथा परिणाम का व्यावर्तन किया गया है। समा. सोक्ति में विषयी विषय का उपरंजक नहीं होता, क्योंकि यहाँ रूपसमारोप नहीं पाया जाता। समासोक्ति में प्रस्तुत वृत्तान्त पर अप्रस्तुत वृत्तान्त का व्यवहारसमारोप पाया जाता है। परिणाम में भी विषय का विषयी के रूप में उपरंजन नहीं पाया जाता, अपितु उलटे विषयी स्वयं विषय के रूप में परिणत होकर प्रकृतोपयोगी बनता है।
दीक्षिन ने इस लक्षण में निम्न दोष हूँढे हैं :
(१) आपने 'आरोपविषयस्य' पद के द्वारा उत्प्रेक्षा का वारण करना चाहा है । इस विषय में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि आरोप तथा अध्यवसाय का आप क्या भेद मानते हैं ? यदि आपका मत यह है जहाँ विषय तथा विषयी दोनों का स्वशब्दतः उपादान हो तथा उनमें अभेद-प्रतिपत्ति हो, वहाँ आरोप होता है, तथा जहाँ विषय का निगरण करके विषयी की उसके साथ अभेद-प्रतिपत्ति पाई जाय, वहाँ अध्यवसाय होता है, तो फिर उत्प्रेक्षा अध्यवसायमूलक न होकर आरोपमूलक बन जायगी। क्योंकि उत्प्रेक्षा में विषय तथा विषयी दोनों का स्वशब्दतः उपादान होता है। फिर तो आपका लक्षण उत्प्रेक्षा का वारण न कर सकेगा। वस्तुतः दोनों में अभेदप्रतिपत्ति नहीं होती। आरोप (रूपक) में ताद्रूप्यप्रतिपत्ति होती है, अध्यवसाय ( उत्प्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति ) में अभेदप्रतिपत्ति होती है-यह इन दोनों का वास्तविक भेद है । अतः आपको. उत्प्रेक्षा का वारण करने के लिए अपने लक्षण में 'ताद्रूप्यप्रतिपत्ति' का संकेत करना चाहिए था।
(२) अतिरोहितरूपिणः' पद से आपने सन्देह, भ्रांतिमान् तथा अपहति की व्यावृत्ति मानी है । इसमें दो कमी हैं, पहले तो इससे अतिशयोक्ति तथा उत्प्रेक्षा का भी वारण हो जाता है, क्योंकि अतिशयोक्ति में विषय निगीर्ण होता है, अतः वह तिरोहित रूप माना जा सकता है. तथा