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[ ५३ ] इस लक्षण में मुख्य बातें ये हैं :
(१) एक ही वस्तु का अनेक व्यक्ति निमित्त भेद के कारण अनेकधा अनुभव करें। इस प्रकार अनेकेन' के द्वारा मालारूपक का वारण हो जाता है, क्योंकि वहाँ अनुभविता एक ही होता है, अनेक नहीं।
(२) साथ ही यह अनुभव 'अनेक प्रकार' का हो। यदि अनेक व्यक्ति एक सा ही अनुभव करेंगे तो उल्लेख न होगा।
(३) जिस वस्तु का 'अनेकधा' उल्लेख हो वह एक ही हो, इस तरह इस लक्षण की अतिव्याप्ति 'शिक्षानैर्मरीति' इत्यादि पथ में न हो सकेगी, क्योंकि वहाँ तत्तत् स्तनकलशादि अनेक वस्तु तत्तत् मर्यादि के रूप में उल्लिखित है।
(४) साथ ही इस लक्षण में 'उल्लेखनं से तात्पर्य 'निषेधास्पृष्ट' वर्णन है, अतः अपहति की भी अतिव्याप्ति न हो सकेगी।
इसके बाद दीक्षित ने इसके दो भेद किये हैं:-शुद्ध उल्लेख तथा अलंकारान्तरसंकीर्ण उल्लेख । इनके कई उदाहरण दिए गये हैं।
उल्लेख का दूसरा प्रकार वहाँ माना गया है, 'जहाँ ग्रहीता के एक ही होते हुए भी विषय के आश्रय भेद के कारण एक ही वस्तु का अनेकधा उल्लेख हो।'
ग्रहीतभेदाभावेऽपि विषयाश्रयभेदतः।
एकस्यानेकपोल्लेखमप्युल्लेखं प्रचलते ॥ (वित्र० पृ० ९०) इसके भी दीक्षित ने शुद्ध तथा संकीर्ण दो भेद किये हैं, तथा इनके अनेक उदाहरण दिये है, जो चित्रमीमांसा में देखे जा सकते हैं।
(१०) अपहुति अपहुति अलंकार का लक्षण निम्न है:- .
__'प्रकृतस्य निषेधेन यदन्यस्वप्रकल्पनम् ।
साम्यादपतिर्वाक्यभेदाभेदवती द्विधा ।' (चित्र०५०९२) 'जहाँ प्रकृत पदार्थ के निषेध के द्वारा, सादृश्य के आधार पर अप्रकृत की कल्पना की जाय, वहाँ अपहुति अलंकार होता है । यह एक वाक्यगत ( वाक्याभेदवती) तथा दिवाक्यगत (वाक्यभेदे) दो तरह की होती है।
इस लक्षण में निम्न बातें पाई जाती है :
(१) चयपि रूपक में 'अन्यत्वकल्पना'-प्रकृत में अप्रकृत की कल्पना (भारोप) पाई जाती है, तथापि वहाँ प्रकृत का निषेध नहीं पाया जाता। अतः 'प्रकृतस्य निषेधेन' से रूपक का वारण होता है।
(२) आक्षेप अलंकार में विषय का निषेध ही पाया जाता है, वहाँ अन्यत्वकल्पन नहीं होता, साथ ही आक्षेप सादृश्यमूलक अलंकार भी नहीं है। अतः 'साम्यात्' तथा 'अन्यत्वकरुपनं से आक्षेप का वारण होता है।