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दो प्रश्न हो सकते हैं
काव्य में वैदर्भी, गौडी, पांचाली आदि रीतियाँ हैं । 'अलंकार' शरीर की शोभा बढ़ाने वाले धर्म हैं, जिस तरह कड़ा, अंगूठी, हार आदि के पहनने से शरीर की साथ ही शरीरी की भी शोभा बढ़ती है, वैसे ही शब्दालंकार या अर्थालंकार के विनियोग से काव्य के चमत्कार में अभिवृद्धि होती है । इनके अतिरिक्त एक और तत्त्व है-दोष । जिस प्रकार शरीर में पाये जाने वाले काणत्व, खंजत्वादि दोष शरीर की शोभा का अपहरण करते हैं, उसी प्रकार काव्य में पाये जाने वाले पदादि दोष काव्य के शोभाविघातक सिद्ध होते हैं । अतः कुशल कवि काव्य में सदा औचित्य का ध्यान रखते हुए 'दोष' को बचाने की चेष्टा करता है तथा रस, गुण, रीति एवं अलंकार का यथोचित विनियोग करता है चूंकि काव्य में रसवत्, सगुण सालंकार तथा निर्दोष शब्दार्थ का होना जरूरी है, यही कारण है मम्मटाचार्य ने काव्य की परिभाषा ही 'तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः कापि निबद्ध की है । मम्मट के मत से 'वे शब्दार्थ, जो गुणयुक्त, दोषरहित तथा कहीं कहीं अनलंकार भी हों, काव्य कहलाते हैं । मम्मट की इस परिभाषा के विषय पहले तो मम्मट ने रस व रीति का कोई संकेत नहीं किया ? दूसरे मम्मट ने इस बात पर जोर दिया है कि काव्य में कभी-कभी अलंकार न भी हों, तो काम चल सकता है, तो क्या काव्य में अलंकारों का होना अनिवार्य नहीं ? यद्यपि मम्मट ने रस व रीति का स्पष्टतः कोई संकेत नहीं किया है तथापि 'सगुणौ' पद के द्वारा 'रस' का संकेत कर दिया गया है। गुण वस्तुतः आत्मा. या रस के धर्म हैं; कोई भी धर्म बिना धर्मी के स्थित नहीं रह सकता, अतः अविनाभावसम्बन्ध से 'सगुणौ' 'सरसौ' की व्यंजना कराते हैं। इस प्रकार मम्मट ने 'सगुणौ' के द्वारा इस बात को तित किया है कि शब्दार्थं रसमय हों। साथ ही रीति का भी गुण से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण 'सगुणौ' से 'रीतिमय' की भी व्यंजना हो जाती है। दूसरा प्रश्न निःसंदेह विशेष महत्त्व का है । मम्मट ने काव्यप्रकाश में बताया है कि कई काव्यों में स्फुटालंकार के न होने पर भी चमत्कारवत्ता पाई जाती है। हम ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जहां स्पष्टरूपेण कोई अलंकार नहीं, यदि हम परिभाषा में 'सालंकारौ' विशेषण देते हैं, तो ऐसे उदाहरण में अकाव्यत्व उपस्थित होगा, इसीलिए हमने इस बात का संकेत किया है कि वैसे तो काव्य के शब्दार्थं सालंकार होने चाहियें, पर यदि कभी २ अनलंकार भी हों तो कोई हानि नहीं । निम्न पद्म में अनलंकार शब्दार्थ होने पर भी काव्यत्व है ही ।
में
यः कौमारहरः रः स एव हि वरस्ता एव चैत्रचपाः ते चोन्मीलितमालती सुरभयः प्रौढाः कदम्बानिलाः । सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ, रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते ॥
'यद्यपि मेरा वर वही है, जिसने मेरे कॉरीपन को खिले हुए मालती पुष्प की सुगन्ध से भरे कदम्ब वायु के तथापि मेरा मन नर्मदा नदी के तीर पर वेत के वृक्ष के हो रहा है।'
छीना था, ये वे ही चैत्र की रातें है, वे ही झकोरे हैं, नीचे सुरतक्रीडा
और मैं भी वही हूं, करने के लिए उत्सुक
उक्त पथ में स्पष्टतः कोई अलंकार नहीं है, यहां मुख्य चमत्कार रस (शृङ्गार) का ही है । वैसे इसमें विभावना तथा विशेषोक्ति का संदेहसंकर माना जा सकता है, किन्तु वह भी स्फुट नहीं । इसीलिए मम्मटाचार्य ने बताया है कि यहाँ कोई स्फुट अलंकार नहीं है - 'अत्र स्फुटो न