________________
[ ६३ ] भामहादि के मत का खण्डन कर आनंदवर्धन ने रस की महत्ता प्रतिष्ठापित कर दी थी, तथापि कुछ आलंकारिक भामह के ही मत को मानते पाये जाते हैं, ये लोग अलंकारों के मोह को नहीं छोड़ पाये हैं । वाग्भट आदि कई आलंकारिकों ने फिर भी रस को अलंकार ही माना है । कुछ नव्य आलंकारिकों ने ध्वनिवादी के अलंकार्य एवं अलंकार के भेद को तो स्वीकार कर लिया है, किंतु वे इस मत से सहमत नहीं कि अलंकार्य काव्य के लिए अनिवार्य नहीं हैं। चन्द्रालोककार जयदेव ने मम्मट की उक्त परिभाषा के 'अनलंकृती पुनः क्वापि' का खण्डन किया है। जयदेव का कहना है कि अलंकार काव्य के अनिवार्य धर्म हैं, ठीक वैसे ही जैसे उष्णत्व अग्नि का धर्म है । यदि उष्णत्व के बिना अग्नि का अस्तित्व हो सकता हो तो अलंकार के बिना भी काव्य का अस्तित्व हो सकता है।
अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती॥ (चन्द्रालोक) इस संबंध में इस बात का भी संकेत कर दिया जाय कि काव्य की आत्मा रस एवं उनके उपस्कारक गुणालंकार के परस्पर संबंध के विषय में भी आलंकारिकों में परस्पर मतमेद हैं। अलंकारवादी विद्वान् उद्भट के मत को मानते हैं, जो गुण तथा अलंकार दोनों को काव्य के ( या रस के ) नियत धर्म मानते हैं । इनके मत से काव्य में दोनों का अस्तित्व होना अनिवार्य है। उद्भट ने उन लोगों के मत को गड्डलिकाप्रवाह बताया है जो इस बात की घोषणा करते हैं कि गुण काव्य में समवायवृत्ति से रहते हैं तथा अलंकार संयोगवृत्ति से। भाव यह है, उन लोगों के मत से गुण काव्य में अबिनाभाव संबंध से अनुस्यूत रहते हैं, जब कि अलंकार ऊपर से ठीक उसी तरह संयुक्त होते हैं, जैसे शरीर के साथ कटककुण्ड लादि का संयोग होता है, जिसे अलग भी किया जा सकता है तथा जिसके बिना भी शरीर का अस्तित्व बना रहता है । उद्भट ने लौकिक अलंकार तथा काव्यालंकार दोनों में समानता मानकर काव्य में इनकी स्थिति संयोग वृत्ति से मानने का खण्डन किया है। उनके मत से काव्यालंकार के विषय में यह बात लागू नहीं होती। काव्य में उपमादि अलंकार माधुर्यादि गुणों की ही भाँति समवाय वृत्ति से स्थित रहते हैं।'
वामन ने गुणालंकार प्रविभाग के विषय में दूसरी कल्पना की है। उनके मत से गुण काव्य के नियत धर्म हैं, दूसरे शब्दों में वे काव्य की शोभा के विधायक हैं, जब कि गुण उस शोभा की वृद्धि करने वाले हैं अर्थात् वे काव्य के अनित्य धर्म है.। ध्वनिवादी ने अंशतः वामन के इस मत को स्वीकार किया है कि गुण काव्य के नियत धर्म हैं तथा अलंकार अनित्य धर्म; गुण का होना काव्य में अत्यावश्यक है, जब कि अलंकार का होना अत्यावश्यक नहीं। तथापि ध्बनिवादी इस मत से सन्तुष्ट नहीं कि गुण काव्य शोभा के विधायक होते हैं। वस्तुतः ध्वनिवादी काव्य शोभा का वास्तविक कारण रस (या ध्वनि ) को ही मानता है । तभी तो मम्मटाचार्य ने गुणों को वे नित्यधर्म माना है, जो शौर्यादि की भाँति काव्य के आत्मरूप रस के उत्कर्ष हेतु हैं :
ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः।
उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥ ( काव्यप्रकाश ८R ) १. 'समवायवृत्त्या शौर्यादयः संयोगवृत्त्या च हारादयः इत्यस्तु गुणालंकाराणां भेदः, ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समयावृत्त्या स्थितिरिति गड्डलिकाप्रणाहेणैवैषां भेदः ।
-भट्टोद्भट का मत (मम्मट के द्वारा उद्धृत) काव्यप्रकाश अष्टम उल्लास । २. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः। तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः।
-काव्यालंकारसूत्रवृत्ति ३.१.१-२