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(२) कमलमिव सुन्दरं तन्मुखम् ।
इस उक्ति में पूर्णोपमा अलंकार है । यदि इस उक्ति को 'अब्जमिव मनोहरं तदाननम्', 'पद्मसदृशं तद्वदनम्' इत्यादि रूपों में परिवर्तित कर दिया जाय, तो भा उपमा का चमत्कार बना रहता हूँ । अतः स्पष्ठ हैं, यहाँ हम शब्दपरिवृत्ति कर सकते हैं, जब कि उपर्युक्त उदाहरण में नहीं ।
हम एक तीसरा उदाहरण ले लें :- 'स्वन्मुखं रात्रौ दिवापि अब्जशोभां धसे' (तुम्हारा मुख रात में और दिन में भी अब्ज ( चन्द्रमा, कमल ) का शोभा को धारण करता है ) । यहाँ दो अलंकार हैं, एक निदर्शना नामक अर्थालंकार, दूसरा श्लेष नामक शब्दालंकार । जहाँ तक निदर्शना बाला अंश है, उस अंश में शब्दपरिवृत्ति करने पर भी चमत्कार बना रहेगा, किंतु 'अब्ज' पद की परिवृत्ति कर 'चन्द्र' या 'कमल' एक पद का प्रयोग करने पर श्लेष का चमत्कार नष्ट हो जायगा । अत: इस उदाहरण में 'अब्ज' पद 'परिवृत्तिसहिष्णु' नहीं है, बाकी पद 'परिवृत्तिसहिष्णु'. है । हम चाहे तो 'तवाननं निशि दिनेऽपि अब्जलीलामनुभवति' कर सकते हैं, तथा दोनों अलंकारों का चमत्कार अक्षुण्ण बना रहगा ।
शब्दालंकार :- शब्दालंकार की सबसे बड़ी विशेषता 'परिवृत्तिसहिष्णुत्व' है । इस आधार पर विद्वानों ने केवल छः शब्दालंकार माने हैं :- १. अनुप्रास, २. यमक, ३. इलेष, ४. वक्रोक्ति, ५. पुनरुक्तवदाभास तथा ६. चित्रालंकार । सरस्वतीकंठाभरण में भोज ने २४ शब्दालंकारों की तालिका दी है पर उनमें अधिकतर शब्दपरिवृत्तिसहिष्णु हैं, अतः वे शब्दालंकार नहीं कहला सकते । पठन्ति शब्दालंकारान् बहूनन्यान्मनीषिणः । परिवृत्तिसहिष्णुत्वात् न ते शब्देकभागिनः ॥
इसीलिए काव्यप्रकाश के टीकाकार सोमेश्वर ने छः शब्दालंकार ही माने हैं:
वक्रोक्तिरभ्यनुप्रासो यमकं श्लेषचित्रके ।
पुनरुक्तवदाभासः शब्दालंकृतयस्तु षट् ॥
दीक्षित ने कुवलयानन्द तथा चित्रमीमांसा दोनों रचनाओं में शब्दालंकार का विवेचन नहीं किया है, इसका संकेत हम कर आये हैं । यहाँ संक्षेप में इन अलंकारों का लक्षणोदाहरण देना अनावश्यक न होगा ।
(१) अनुप्रास : - जहाँ एक सी व्यञ्जन ध्वनियाँ अनेक शब्दों के आदि, मध्य या अन्त में क्रम से प्रयुक्त हो, वहाँ अनुप्रास होता है, दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि काव्य समान वर्गों ( व्यञ्जनों ) का प्रयोग अनुप्रास है । ( वर्णसाम्यमनुप्रासः । मम्मट )
उदाहरण :
उन्मीलन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्याधूतचूताङ्कुरक्रीडस्कोकिलकाकलीकलकलैरुद्गीर्णकर्णज्वराः ।
नयंते पथिकैः कथं कथमपि ध्यानावधानक्षणप्राप्तप्राणसमासमागमरसाल्लासैरमी वासराः ॥
अनुप्रास के छेक, वृत्ति, श्रुति तथा लाट ये चार भेद माने जाते हैं, जो अन्यत्र देखे जा सकते हैं ।
( २ ) यमक : जहां एक-से स्वरव्यञ्जनसमूह ( पद ) की ठीक उसी क्रम से भिन्न-भिन्न अर्थों में आवृत्ति हो, वहां यमक होता है ।
५ कु० भू०