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पद सर्वथा विलक्षण है तथा उसका प्रयोग विषयतावच्छेदक के रूप में हुआ है। अतः उक्त अर्थ लेने पर आप का लक्षण यहाँ ठीक नहीं बैठेगा, जब कि यहाँ भी अतिशयोक्ति अलंकार है ही।
साथ ही विषयिप्रतिपादक विलक्षण विषयप्रतिपादक का अभाव अर्थ लेने पर तो 'रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिव' में भी इस लक्षण की अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि यहाँ भी उपमेय का प्रतिपादक शब्द उपमान के प्रतिपादक से विलक्षण नहीं है। संभवतः पूर्वपक्षी यह उत्तर देगा कि यहाँ तो अनन्वय अलंकार है, अतः अभेद कल्पना न होने से यहाँ उपमानोपमेय विषय-विषयी नहीं कहलाते। विषय-हम उसे कहेंगे जिसका किसी अन्य वस्तु के साथ सादृश्य के आधार पर अभेद स्थापित किया जाता है। इस तरह अनन्वय के उपमान तथा उपमेय में अभेद स्थापना न होने से वे विषयी तथा विषय नहीं हैं। पूर्वपक्षी का यह उत्तर ठीक है, किंतु अभेद स्थापना रूपक में तो पाई जाती है, अतः उक्त लक्षण की अतिव्याप्ति श्लिष्ट रूपक में तो होगी ही, क्योंकि वहाँ विषय तथा विषयी दोनों का वाचक पद एक ही बार प्रयुक्त होता है, अलग-अलग नहीं । यदि आप कहें कि रूपक में केवल ताप्यारोप होता है, अतिशयोक्ति में अभेदाध्यवसाय, तो यह मत ठीक नहीं, वस्तुतः रूपकमें भो अभेदाध्यवसाय पाया जाता है। साथ ही इसकी अतिव्याप्ति सारूप्यनिबंधन समासोक्ति में भी पाई जाती है। अतः उक्त अतिशयोक्ति लक्षण दुष्ट है । चित्रमीमांसा यहीं समाप्त हो जाती है।
'अप्यर्धचित्रमीमांसा न मुदे कस्य मांसला। अनूरुरिव धर्माशोरर्धेन्दुरिव धूर्जटेः ॥'
(५) 'अलंकार' शब्द की व्युत्पत्ति है-'अलंकरोतीति अलंकार' 'वह पदार्थ जो किसी की शोभा बढ़ाये, किसी को अलंकृत करें'। लौकिक अर्थ में हम उन कटक कुण्डलादि स्वर्णाभूषणों को, जो शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, अलंकार कहते हैं। ठीक इसी तरह काव्य के उन उपकरणों को जो कविता-कामिनी की शोभावृद्धि करते हैं, अलंकार कहा जाता है। काव्य की भीमांसा करते समय हम देखते है कि काव्य के उपादान शब्द और अर्थ-शब्दार्थ-है । जिस प्रकार हमारे शरीर की संघटना रक्त, मांस, अस्थिपंजर से बनी हुई है, ठीक वैसे ही काव्य की संघटना के विधायक तत्व शब्दार्थ हैं। शब्द तथा अर्थ वैसे तो दो तत्त्व है, किंतु ये दोनों परस्पर इतने संश्लिष्ट है कि शब्द के बिना अर्थ का अस्तित्त्व नहीं रह पाता तथा अर्थ के बिना शब्द केवल 'नाद' मात्र है। किंतु शब्दार्थ तो लौकिक वाक्यों में भी पाये जाते हैं, तो क्या शब्दार्थ को काव्य मानने पर समस्त लौकिक वाक्य काव्य होंगे? इस शंका के निराकरण करने के लिए जब तक शब्दार्थ के साथ किन्हीं विशेष विशेषणों का उपादान न कर दिया जायगा, तब तक काव्य की निर्दुष्ट परिभाषा न बन पायगी। वस्तुतः काव्य होने के लिए शब्दार्थ का रसमय होना आवश्यक है। जब तक शब्दार्थ रसमय न होंगे तब तक वे काव्यसंशा का वहन न कर सकेंग । काव्य में रस का ठीक वही महत्त्व है, जो शरीर में आत्मा का। यही कारण है विश्वनाथ ने काव्य की परिमाषा ही वाक्यं रसात्मकं काव्यं निबद्ध की। रस के अतिरिक्त कान्य के अन्य उपकरण गुण, रीति तथा अलंकार है। गुण वस्तुतः रस के धर्म है। जैसे आत्मा के धर्म शूरता, कायरपन, दानशीलता आदि है, वैसे माधुर्य, ओजस् तथा प्रसाद रस के धर्म हैं। रीति शरीर का । अवयवसंस्थान है, जिस तरह प्रत्येक शरीर की विशेष प्रकार की संघटना पाई जाती है, वैसे ही