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[ ५८ ] (१२) अतिशयोक्ति
चित्रमीमांसा में अतिशयोक्ति का प्रकरण अधूरा ही मिलता है ! दीक्षित ने प्रतापरुद्रीय कार विद्यानाथ के अतिशयोक्ति लक्षण को उपन्यस्त कर उसकी परीक्षा की है। विद्यानाथ का अतिशयोक्ति लक्षण निम्न है :
'विषयस्यानुपादानाद्विषय्युपनिबध्यते ।
यत्र सातिशयोक्तिः स्यात्कविप्रौढोक्तिजीविता ॥'
'जहाँ विषय (उपमेय ) का अनुपादान करते हुए केवल विषयी ( उपमान ) का ही निबंधन किया जाय, वहाँ अतिशयोक्ति होती है । यह अतिशयोक्ति कविप्रौढोक्ति की आत्मा है ।'
इस संबन्ध में दीक्षित ने बताया है कि उक्त लक्षण मानने वाले आलंकारिकों ने अतिशयोक्ति के केवल चार ही भेद माने हैं :- भेदे अभेदः, अभेदे भेदः, संबन्धे असंबन्धः, असंबन्धे संन्बधः । सम्मट तथा रुय्यक के द्वारा सम्मत अतिशयोक्ति के अन्य भेद--कार्यकारणपौर्वापर्य का संकेत सादृश्यमूलक अलंकारों में न कर कार्यकारणमूलक अलंकारों में करते हैं । '
दीक्षित मे उक्त लक्षण का विचार करते हुए पूछा है कि 'विषयस्यानुपादानात् ' पद से विद्यानाथ का क्या तात्पर्य है ? इसके दो अर्थ हो सकते हैं या तो ( १ ) विषय के प्रतिपादक का अभाव हो, ( २ ) या फिर विषय के वाचक पद का अभाव हो । विद्यानाथ का तात्पर्य किस अर्थ में है । यदि वे ' विषयस्य प्रतिपादकाभावः' अर्थ लेंगे, तो 'भेदे अभेदः' वाले उदाहरणों में जहाँ विषय के लिए उसके लाक्षणिक विषयिवाचक पद का प्रयोग होता है, यह लक्षण लागू न हो सकेगा । जब हम ' मुख' के लिए 'कमल' शब्द का प्रयोग करते हैं, तो यहाँ 'कमल' शब्द लक्षणा से ' मुख' का प्रतिपादक तो है ही, भले ही वह वाचक ( अभिधावृत्ति के द्वारा प्रत्यायक ) न हो । अतः पहला अर्थ लेने में यह दोष है । यदि दूसरा अर्थ - ' विषयस्य वाचकाभावः ' — लेना है, तो भी आपत्ति हो सकती है। हम एक ऐसा उदाहरण ले लें, जहाँ इलेषमूला अतिशयोक्ति पाई जाती है - 'चुम्बती रजनीमुखं शशी' । यहाँ 'मुखं' पद में श्लेषमूलातिशयोक्ति है; एक ओर इसका अर्थ है - प्रदोष (रजनीमुख ), दूसरी ओर वदन ( रजनी - नायिका का मुख ) । यहाँ वदनार्थक किंतु इतना होने पर भी उसमें 'तद्वाचकाभाव' रात्रि के आरंभ का भी वाचक है ही । फिर
मुख ने प्रदोषार्थक मुख का निगरण कर लिया है। ( विषय के अभिधायक का न होना ) नहीं है । वह तो यह लक्षण इस उदाहरण में लागू न हो सकेगा ।
पूर्वपक्षी इस दोष को यों हटाना चाहेगा । वह कह सकता है कि ' विषयस्यानुपादानात्' से हमारा तात्पर्य यह है कि विषयी ( उपमान ) के वाचक शब्द से अलग विषय - प्रतिपादक शब्द का अभाव हो । किंतु ऐसा मानने पर भी ठीक न होगा । हम एक उदाहरण ले लें'उन्मीलितानि नेत्राणि पद्मानीवोदिते रवौ' । इस पंक्ति में 'उन्मीलितानि' के दो अर्थ हैं :- 'खुल
१. प्रतापरुद्रीकार विद्यानाथ ने तो फिर भी अतिशयोक्ति के पाँचों भेदों का साथ-साथ ही वर्णन किया है। हाँ, पंचम भेद का लक्षण अलग से निबद्ध किया है। (दे० प्रतापरुद्रीय पृ० ३९६, ३९९ ) पर एकावलीकार विद्याधर ने सादृश्यमूलक अतिशयोक्ति में केवल चार ही भेदों का वर्णन किया है । पाँचवें भेद का वर्णन उसने भिन्न प्रकरण में विशेषोक्ति के बाद किया है । (दे० एकावली पृ० २३७ तथा पृ० २८५ )