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[ ५५ ] वाली सखी, नहीं, भला कहीं चोलंक (गले से पैरों तक पहनने का औरतों का लम्बा लवादा, जिसे सिर से पहना जाता है) भी लज्जा का कारण बन सकता है।'
इसी सम्बन्ध में दीक्षित ने यह भी बताया है कि उद्भटादि आलंकारिक व्याजोक्ति अलंकार नहीं मानते, अतः उनके मत से यह अपहुति का ही भेद है, किन्तु रुचक (रुग्यक ) आदि के मत में यहाँ अपहुति न होकर व्याजोक्ति मानी जायगी।'
अन्त में दीक्षित ने इस बात का भी संकेत किया है कि दण्डी के मतानुसार साधम्र्येतर सम्बन्ध में भी अपहुति होती है । अतः दण्डी किसी भी वस्तु के निषेध करने तथा अन्य वस्तु की कल्पना करने में अपहति मानते हैं :
अपहुतिरपहुस्य किंचिदन्यार्थसूचनम् । न पश्चेषुः स्मरस्तस्य सहस्रं पस्त्रिणामिति ॥'
(११) उत्प्रेक्षा अभेद प्रधान अलंकारों के बाद दीक्षित ने अध्यवसायमूलक अलंकारों को लिया है। इस कोटि में केवल दो अलंकार आते हैं-उत्प्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति । उत्प्रेक्षा के प्रकरण में दीक्षित ने विद्यानाथ के प्रतापरुद्रीय से लक्षण देकर उस पर विचार किया है । विद्यानाथ का लक्षण यह है :
'यत्रान्यधर्मसंबंधादन्यत्वेनोपतर्कितम् ।
प्रकृतं हि भवेत्प्राज्ञास्तामुत्प्रेक्षां प्रचक्षते ॥' (चि. पृ० ८६) 'जहाँ अप्रकृत पदार्थ के धर्मसंबंध के कारण प्रकृत में अप्रकृत की कल्पना ( संभावना ) की जाय, उसे विद्वान् लोग उत्प्रेक्षा अलंकार कहते हैं।'
इस लक्षण में निम्न बातें हैं :(१) प्रकृत में अप्रकृत की संभावना की जाती है। (२) प्रकृत में अप्रकृत की संभावना किसी धर्मसंबंध के कारण की जाती है।
उक्त लक्षण में 'उपतर्कितम्' पद से लक्षणकर्ता का तात्पर्य 'संभावना' है, 'निश्चय' से नहीं। यही कारण है, जिस धर्मसंबंध के कारण उत्प्रेक्षा घटित होती है, वह केवल तादाम्यसंभावना का हेतु है, उसे हम ‘पर्वतोऽयं वहिमान् , धूमात्' में पाये जाने वाले हेतु 'धूम' की तरह निश्चयात्मक हेतु नहीं कह सकते । इसी संबंध में दीक्षित ने इस बात का भी संकेत किया है कि कई स्थानों पर 'इव' शब्द के द्वारा भी संभावना की जाती है, जैसे 'सयो वसन्तेन समागताना नखातानीव वनस्थलीनाम्' में । ऐसे स्थानों पर 'इव' सादृश्यवाचक शब्द नहीं है, अतः यहाँ उपमा नहीं मानी जा सकती। दीक्षित ने दण्डी का प्रमाण देकर इस बात को पुष्ट किया है कि उन्होंने उत्प्रेक्षावाचक शब्दों में 'इव' का समावेश किया है, तथा काव्यप्रकाश के टीकाकार चक्रवर्ती के इस मत का संकेत किया है कि जब उपमान लोकसिद्ध हो तो 'इव' उपमावाचक होता है और जब वह लोकसिद्ध न होकर कल्पित होता है तो 'इव' उत्प्रेक्षावाचक 'संभावना परक' होता है।
१. अत्रेदमपहुतिकथनं व्याजोक्त्यलंकारं पृथगनंगीकुर्वतामुटादीनां मतमनुसत्य । ये तु उशिनवस्तुनिगृहनं व्याजोक्तिरिति ब्याजोक्त्यलंकारं पृथगिच्छन्ति तेषामिहापि व्याजोक्तिरेव नापतिरिति रुचकादयः । (चित्रमीमांसा पृ० ८५)