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[ ४६ ] उत्प्रेक्षा में भी आहार्य संभावना के कारण विषय 'तिरोहित रूप' होता ही है। अतः इन दोनों के वारण के लिए प्रयुक्त प्रथम पद 'आरोपविषयस्य' व्यर्थ है। साथ ही इस पद से अपह्नति का वारण किया गया है, पर वस्तुतः अपह्नति में 'विषय' तिरोहित नहीं, होता, क्योंकि 'मेदं मुखं किं तु चन्द्रः' में मुखत्व का निषेध कर चन्द्रत्व का जो आरोप किया जाता है, वह केवल कल्पित होता है, अतः यहाँ विषयी विषय का तिरोधायक नहीं होता।
(३) इस लक्षण की निदर्शना में अतिव्याप्ति पाई जाती है। क्योंकि ताद्रूप्यारोप तो वहाँ भी पाया जाता है, यह दूसरी बात है कि वहाँ उपमेयवाक्यार्थ पर उपमानवाक्यार्थ का आरोप होता है । अतः यह लक्षण दुष्ट है।
इसके बाद दीक्षित ने भोजराज के रूपक लक्षण का भी खण्डन किया है। भोज के मतानुसार, 'जहाँ उपमान के वाचक शब्दों का गौण वृत्ति ( लक्षणा) के आश्रय के कारण उपमेय के अर्थ में प्रयोग हो वहाँ रूपक अलंकार होता है।'
यदोपमानशब्दानां गौणवृत्तिव्यपाश्रयात् ।
उपमेये भवेद् वृत्तिस्तदा तद्रूपकं विदुः ॥ ( सरस्वती कण्ठा० ) इस लक्षण में सबसे बड़ा दोष यह है कि यह लक्षण अतिशयोक्ति में अतिव्याप्त होता है। अतिशयोक्ति में भी गौण वृत्ति का आश्रय लेते हुए उपमान का उपमेय के अर्थ में प्रयोग होता ही है। 'मुखं चन्द्रः' ( रूपक ) में गौणी सारोपा लक्षणा पाई जाती है, तथा मुख को देखकर 'चन्द्रः' कहने में गौणी साध्यवसाना लक्षणा होती है । अतः केवल गौणी वृत्ति के आश्रय में रूपक मानने पर ( मुखं) चन्द्रः' ( अतिशयोक्ति ) में भी रूपक का प्रसंग उपस्थित होगा।
इसी सम्बन्ध में दीक्षित ने एक महत्त्वपूर्ण बात की ओर संकेत किया है। प्राचीन आलंकारिक रूपक तथा अतिशयोक्ति दोनों अलंकारों में लक्षणा का क्षेत्र मानते हैं। किन्तु ध्यान से विचार करने पर पता चलेगा कि लक्षणा का सच्चा क्षेत्र अतिशयोक्ति में ही है, रूपक में तो हम किसी तरह लक्षणा का निषेध भी कर सकते हैं। अतिशयोक्ति में विषय के वाचक मुखादि पदों का प्रयोग न करते हुए विषयिवाचक चन्द्रादि पदों के द्वारा उसका प्रतिपादन किया जाता है, अतः यह लक्षणा माननी ही पड़ेगी। पर रूपक में तो विषयवाचक मुखादि तथा विषयिवाचक चन्द्रादि दोनों का प्रयोग होता है तथा उनमें केवल अन्वय के कारण ही अभेदप्रतिपत्ति होती है, अतः यहाँ लक्षणा क्यों मानी जाती है ?
वस्तुतस्त्वतिशयोक्तावेव लक्षणा न तु रूपके इति शक्यं व्यवस्थापयितुम्' तथाहि अतिशयोक्तौ विषयाभिधायिमुखादिपदाप्रयोगाञ्चन्द्रादिपदेनैव तत्प्रत्यायनं कार्यमिति तस्य तत्र लक्षणावश्यमास्थेया। रूपके विषयविषयिणोः स्वस्ववाचकाभिहितयोरभेदप्रतिपत्तिः संसर्गमर्यादयेव सम्भवतीति किमर्थं तत्र लक्षणा, अशक्या च तत्र लक्षणाभ्युपगन्तुम् ।'
(चित्रमीमांसा पृ० ५४ ) ___ साथ ही, भोजराज के लक्षण में तीन दोष और हैं :-प्रथम तो यह लक्षण व्यंग्यरूपक में घटित नहीं होता, दूसरे शुद्धा सारोपा लक्षणामूलक रूपक अलंकार में भी यह घटित नहीं होता',
. १. कुछ आलंकारिकों ने शुद्धा सारोपा लक्षणा में भी रूपक अलंकार माना है। इस मत का संकेत हमें शोभाकर के अलंकाररत्नाकर तथा विद्याधर की एकावली में मिलता है। इनके मत से