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'आतपत्र' से युक्त शिव जिनका मस्तक श्वेतातपत्र के रेशमी वस को छू रहा था, ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे 'गंगा से युक्त सिर वाले वे स्वयं ही हों।' यहाँ उपमान तथा उपमेय दोनों 'शिव' ही हैं, पर इतना होने पर उनके धर्म एक नहीं हैं । अतः 'एकस्यैव' पद का प्रयोग ठीक नहीं है । ___ दीक्षित ने अपना लक्षण यों दिया है :-'जहाँ एक पदार्थ की उपमा स्वयं उसी से दी जाय तथा वह केवल अनुगामी धर्म के आधार पर हो, वहाँ अन्वर्थ नाम वाला 'अनन्वय' अलंकार होता है।
स्वस्य स्वेनोपमा या स्यादनुगाम्येकधर्मिका । अन्वर्थनामधेयोऽयमनन्वय इतीरितः ॥ (चित्र० पृ० ४९)
(४) स्मरण स्मरण अलंकार के विषय में दीक्षित ने प्राचीनों के लक्षण का खंडन नहीं किया है। स्मरण का चित्रमीमांसोक्त लक्षण यह है :-'जहाँ सादृश्य के आधार पर (किसी एक वस्तु को देख कर) अन्य वस्तु की स्मृति हो आये तथा वह स्मृति व्यंग्य न होकर वाच्य हो, वहाँ स्मरण नामक अलंकार होता है।
स्मृतिः सादृश्यमूला या वस्स्वन्तरसमाश्रया। स्मरणालंकृतिः सा स्यादव्यङ्गयत्वविशेषिता॥
(चित्र० पृ० ५०) (१) स्मरण अलंकार वहीं होगा, जहाँ सादृश्य के आधार पर किसी अन्य वस्तु का स्मरण किया जाय, अतः स्मृति संचारमाव में स्मरण अलंकार नहीं होगा। निम्न स्थलों में 'स्मृति' संचा. रिभाव है, स्मरण अलंकार नहीं। (अ) चिप्तं पुरो न जगृहे मुहरिचुकाण्डं नापेक्षते स्म निकटोपगता करेणुम् ।
सस्मार वारणपतिः परिमीलिताक्षमिच्छाविहारवनवासमहोत्सवानाम् ॥ ( माघ ) (आ) सधन कुंज छाया सुखद सीतल मंद समीर ।
मन कै जात अजो बहै वा जमुना के तीर ॥ (विहारी) (२) साथ ही सादृश्यमूलक स्मृति के वाच्य होने पर ही स्मरण अलंकार हो सकेगा, यदि वहाँ 'व्यंग्यत्व' होगा, तो वहाँ अलंकार ध्वनि होगी, अलंकार नहीं, जैसे निम्न पद्य में जहाँ 'हिरन' की बात सुनकर राम को हिरन के नेत्रों का स्मरण हो आता है, इससे उनके समान सीता के नेत्रों का तथा स्वयं सीता का स्मरण हो आता है। यह सीताविषयक स्मृति व्यंग्य है, वाच्य नहीं, अतः निम्न पद्य में 'स्मरणध्वनि' है, स्मरणालंकार नहीं। 'सौमित्रे ननु सेव्यतां तरुतलं चण्डांशुरुज्जम्भते,
चण्डांशोर्निशि का कथा रघुपते चन्द्रोऽयमुन्मीलति । वस्सैतद्विदितं कथं नु भवता धत्ते कुरंगं यतः,
कासि प्रेयसि हा कुरंगनयने चन्द्रानने जानकि ॥"
१. इस पथ की हिंदी व्याख्या के लिए दे०-कुवलयानंद, हिंदी व्याख्या पृ० २७७ ।