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तालिका में दिया है ।' तृतीय परिच्छेद की कारिका ४६ स लेकर ५४ तक भोजराज ने मीमांसादर्शनसम्मत इन छः प्रमाणों का विस्तार से सोदाहरण विवेचन किया है। दीक्षित के प्रमाणालंकारों का आधार यही है। पर दीक्षित ने इस ओर भोज से भी अधिक कल्पना से काम लिया है। दीक्षित ने पौराणिकों के द्वारा सम्मत दसों प्रमाणों को अलंकार मान लिया है। यही कारण है, दीक्षित ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति तथा अभाव के अतिरिक्त स्मृति, श्रुति, संभव तथा ऐतिह्य इन चार प्रमाणों को भी अलंकार-कोटि में मान लिया है, जिनका कोई संकेत भोज में नहीं मिलता। हमारे मत से प्रमाणों को अलंकार मानना ठीक नहीं ।
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कुवलयानंद में दीक्षित ने कुछ ही अलंकारों पर विशद विचार किया है, शेष अलंकारों के केवल लक्षणोदाहरण हो दिये गये हैं । चित्रमीमांसा में दीक्षित ने उपमादि १२ अलंकारों पर जम कर समस्त ऊहापोह की दृष्टि से विचार किया है, जिनमें अंतिम अलंकार अतिशयोक्ति का प्रकरण अधूरा हैं । ऐसा जान पड़ता है, चित्रमीमांसा में दीक्षित समस्त प्रमुख अर्थालंकारों पर डट कर सब पक्षों को ध्यान में रखते हुए विचार करना चाहते थे, किंतु दीक्षित की यह योजना पूर्ण न हो सकी । हम यहाँ तत्तत् अलंकार के विषय में दीक्षित के चित्रमीमांसागत विचार का सार देने की चेष्टा करेंगे ।
( १ ) उपमा
कुवलयानंद में उपमा पर चलते ढंग से विचार किया गया है, केवल 'तदेतस्काकतालीय. मवितर्कित संभवम्' इस उदाहरण को स्पष्ट करने के लिए कुछ व्याकरणसंबन्धी विवेचन पाया जाता है । यहाँ उपमा के केवल नौ भेदों- - एक पूर्णा तथा आठ लुप्ता - का संकेत मिलता है 1 मम्मटादि के द्वारा संकेतित अन्य उपमाभेदों का कोई उल्लेख कुवलयानंद में नहीं किया गया है । चित्रमीमांसा में उपमा का विशद विवेचन है। आरंभ में दीक्षित ने प्राचीन आलंकारिकोंविद्यानाथ, भोजराज आदि - के उपमालक्षण को दुष्ट बताकर स्वयं अपना लक्षण दिया है । तदनंतर उपमा के तत्त्वों, वाचक शब्द के प्रकार तथा साधारण धर्म के तत्तत् प्रकारों का उल्लेख है । तदनंतर मम्मटादि के द्वारा वर्णित उपमाभेदों का विवेचन एवं उपमादोषों का संकेत किया गया है | चित्रमीमांसा की भूमिका में ही दीक्षित ने उपमा के महत्त्व पर जोर देते हुए बताया है कि समस्त साधर्म्यमूलक अलंकारों का आधार उपमा ही है । 'उपमा ही वह नर्तकी है, जो नाना प्रकार की अलंकार भूमिका में काव्य मंच पर अवतीर्ण होकर काव्यरसशों को आह्लादित करती रहती है ।'
उपका शैलूषी संप्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् ।
रंजयति काव्यरंगे नृत्यन्ती तद्विदां चेतः ॥ (चित्र. पृ० ६ )
१. जातिविंभावना हेतुरहेतुः सूक्ष्ममुत्तरम् । विरोधः संभवोऽन्योन्यं परिवृत्तिनिदर्शना ॥ भेदः समाहितं भ्रांतिर्वितक मीलितं स्मृतिः ।
भावः प्रत्यचपूर्वाणि प्रमाणानि च जैमिनेः ॥ ( सरस्वतीकंठाभरण ३. २. ३. ३. )