Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गां० २६]
एयजीवेण कालो * एयजीवेण कालो। ६८४. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । * मिच्छत्तस्स संकामो केवचिरं कालादो होदि ? १८५. सुगममेदं पुच्छावकं ।
ॐ जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
$ ८६. तं जहा–मिच्छाइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठो वा सम्मत्तं घेत्तूण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो अण्णदरगुणं पडिवण्णो । लद्धो जहण्णेणंतोमुहुत्तमेत्तो मिच्छत्तसंकमकालो।
* उकस्सेण छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।।
८७. तं जहा—उवसमसम्मत्तपंढमसमए मिच्छत्तसंकमस्सादि कादूण सव्वुक्कस्सियं तदद्धमणुपालिय पुणो वेदयसम्मत्तं पडिवजिय छावहिसागरोवमाणि परिभमिय तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे दंसणमोहणी यक्खवणाए अब्भुट्ठिदस्स मिच्छत्तमावलियं पवेसिय
अवस्थाएँ सम्भव हैं वहाँ तो ओघ प्ररूपणा जानना चाहिये । उदाहरणार्थ चारों गतियोंमें उक्त दोनों अवस्थाएं हो सकती हैं अत: वहाँ ओघप्ररूपणा बन जाती है। किन्तु इस मार्गणाके अवान्तर भेद मनुष्यगतिमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य और तिर्यञ्चगतिमें लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यश्च इन दो मार्गणाओंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है और मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्व प्रकृतिका संक्रम नहीं होता ऐसा नियम है, अतः यहाँ २७ प्रकृतियोंका ही संक्रम बतलाया है। इसी प्रकार देवगतिमें भी अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके एक सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है और सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृतिका संक्रम नहीं होता ऐसा नियम है, अतः यहाँ भी सम्यक्त्वके सिवा २७ प्रकृतियोंका संक्रम बतलाया है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जहाँ जो विशेषता सम्भव हो उसे ध्यानमें रखकर जहाँ जितनी प्रकृतियोंका संक्रम सम्भव हो उसका निर्देश करना चाहिये।
* अब एक जीवकी अपेक्षा कालका अधिकार है।
८४. अधिकारका निर्देश करनेवाला यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वके संक्रामकका कितना काल है ? ६८५. यह पृच्छासूत्र सुगम है । * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
८६. यथा-मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करके और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक सम्यक्त्वके साथ रह कर फिर अन्यतर गुणस्थानको प्राप्त हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्वका जघन्य संक्रमकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो गया ।
* उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है ।
६८७. यथा-उपशमसम्यक्त्वके प्रथम समयमें मिथ्यात्वके संक्रमका प्रारम्भ करके और सबसे उत्कृष्ट कालतक उसका पालन करके फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। अनन्तर छयासठ सागर कालतक उसके साथ परिभ्रमण करके उसमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके
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