Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६२३७. आणुपुव्वीसंकमक्सेण लोभस्सासंकामगो होऊण जो द्विओ चउवीससंतकम्मिओ उवसामओ तस्स वावीससंकमपयडीसु णqसयवेदे उवसंते इत्थिवेदे चाणुवसंते इगिवीससंकमट्ठाणं पयारंतरपडिबद्धमुप्पजइ । जेणेदं सुत्तं देसामासियं तेण चउवीससंतकम्मियउवसमसम्माइद्विस्स सासणभावं पडिवण्णस्स पढमावलियाए चउवीससंतकम्मियसम्मामिच्छाइटिस्स वा इगिवीससंकमट्ठाणं पयारंतरपडिग्गहियं होइ ति वत्तव्वं, तत्थ पयारंतरपरिहारेण पयदसंकमट्ठाणसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो। अदो चेय ओदरमाणगस्स वि चउवीससंतकम्मियस्स सत्तसु कम्मेसु ओकड्डिदेसु जाव इत्थिणqसयवेदा उवसंता ताव इगिवीससंतकम्मट्ठाणसंभवो सुत्तंतम्भूदो वक्खाणेयव्वो।
5२३७. आनुपूर्वी संक्रमके कारण लोभ संज्वलनका संक्रम नहीं करनेवाला जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव है उसके बाईस संक्रम प्रकृतियोंमेंसे नपुंसकबेदका उपशम होने पर और स्त्रीवेदका उपशम नहीं होने पर प्रकारान्तरसे इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। यतः यह सूत्र देशामर्षक है अतः इससे यह भी सूचित होता है कि जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके पहली श्रावलि कालके भीतर या चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्य प्रकारके प्रतिग्रहके साथ यह इक्कस :कृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि वहां पर प्रकारान्तरके परिहार द्वारा प्रकृत संक्रमस्थानकी सिद्धि निर्वाधरूपसे पाई जाती है। तथा इससे सूत्र में अन्तर्भूत हुए इस स्थानका भी व्याख्यान करना चाहिये कि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव उपशमश्रेणिसे उतर रहा है उसके सान नोकषाय कर्मोंका अपकर्षण तो हो गया है किन्तु जब तक स्त्रीवेद और नपुंसकोद उपशान्त हैं तब तक इक्कीस : कृतिक संक्रमस्थान सम्भव है। ..
विशेषार्थ—यहां पर इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान पांच प्रकारसे बतलाया है। यथा-(१) जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जब तक अन्य प्रकृतियोंका क्षय नहीं करता या उपशमश्रेणिमें आनुपूर्वी संक्रमको नहीं प्राप्त होता है तबतक इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । (२) जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके नपुंसकवेदका उपशम हो जाने पर जब तक स्त्रीवेदका उपशम नहीं होता तब तक इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इस स्थानमें सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ और नपुंसकवेदका संक्रम नहीं होता, शेषका होता है। (३) चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशमसम्यग्दृष्ट जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके एक आवलि कालतक इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । यहाँ पर तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धी इन सातका संक्रम नहीं होता। (४) चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव मिश्न गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्क तो हैं ही नहीं और तीन दर्शनमोहनीयका संक्रम नहीं होता है। (५) जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणिसे उतर रहा है उसके और सब कर्मोंके अनुपशान्त हो जाने पर भी जब तक स्त्रीवेद और नपुसकवेद उपशान्त रहते हैं तब तक इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। इसके भी चार अनन्तानुबन्धियों का तो सद्भाव ही नहीं है और सम्यक्त्व, स्त्रीवेद तथा नपुसकवेदका संक्रम नहीं होता है। इस प्रकार ये पाँच प्रकारसे इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। इनमेंसे प्रारम्भके दो संक्रमस्थानोंका तो चूर्णिसूत्रकारने स्वयं उल्लेख किया है किन्तु शेष तीन संक्रमस्थानोंका नहीं किया है। सो चूर्णिसूत्र देशामर्षक होनेसे सूचित हो जाते हैं ऐसा जानना चाहिये।
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