Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ तिण्णिपदेहि लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। मणुसतिए २७, २६, २५ संका० पंचिंदियतिरिक्खमंगो। सेसं खेत्तं ।
४२३. देवेसु २७, २६, २५ संका० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-णवचोदस० देसूणा । २३, २१ संका० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोदस० देसूणा । एवं सोहम्मीसाणे। एवं भवण०-वा०-जोदिसि० । णवरि सगफोसणं कायव्वं । सणकुमारादि जाव सहस्सार त्ति सव्वपदसंका० लोग० असंखे भागो अट्ठचोदस० देसूणा । आणदादि जाव अचुदा त्ति सव्वपदेहि लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा। उवरि खेत्तभंगो। एवं जाव०।
६ ४२४. संपहि णाणाजीवसंबंधिकालपरूवणट्ठमुवरिमं चुण्णिसुत्तमाह* णाणाजीवेहि कालो।
४२५. अहियारसंभालणसुत्तमेदं सुगमं । * पंचण्हं हाणाणं संकामया सव्वद्धा ।
$ ४२६. एत्थ पंचण्हं द्वाणाणमिदि वयणेण सत्तावीस-छब्बीस-पणुवीसतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें तीन पदवाले जीवोंने ले कके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिकमें २७, २६ और २५ प्रकृतिक संक्रमस्थानवाले जीवोंका स्पर्शन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । तथा शेष पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
६४२३. देवोंमें २७, २६ और २५ प्रकृतिक संक्रमस्थानवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सनाल के चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ व कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २३ और २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म व ऐशान कल्पमें जानना चाहिये। तथा इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें कहना चाहिये। किन्तु सर्वत्र अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक सब पदोंके संक्रामक देवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतसे लेकर अच्युत तक सब पदोंके संक्रामक देवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इससे आगेके देवोंमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये।
६४२४. अब नाना जीवसम्बन्धी कालका कथन करनेके लिये आगेका चूर्णिसूत्र कहते हैं* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका अधिकार है । 6 ४२१. अधिकारकी संम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है।
8 पांच संक्रमस्थानोंके जीव सदा पाये जाते हैं। 5 ४२६. इस सूत्रमें जो ‘पंचण्हं हाणाण' वचन दिया है सो इससे सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस,
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