Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 440
________________ गा० ५८ ] पडविड्डिक पाबहु संजण तिय- पुरिसवेद० सव्वत्थोवा असंखेजगुणवड्डिसंका० । अवत्त० संका० गुणा । सेसं तं चैव सम्म० सम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणिसं० । असंखे० गुणा । असंखे० भागवड्डिसंका० असंखे० गुणा । असंखे० गुणवड्डिसं० गुणा । संखे ० भागवड्ढि असंखे० गुणा । संखे० ० गुणव० संखे० गुणा । गुणहाणि० संखे० गुणा | संखे० भागहाणि० असंखे० गुणा । अवत्त ० असंखे ०गुणा । असंखे० भागहाणि ० असंखे० गुणा । ४२७ संखे - अवट्टिο $ ९२१. आदेसेण सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय देवा जाव सहस्सार त्ति छव्वीसं पय० विहत्तिभंगो । सम्म० - सम्मामि० ओघभंगो । वरि असंखे ०गुणहाणि संका ० णत्थि । पंचिं० तिरिक्खअपज ० - मणुसअप ० विहत्तिभंगो । नवरि सम्म० - सम्मामि० असंखे ० - गुणहाणी णत्थि । मणुसेसु मिच्छ० - अनंताणु० चउक्क० विहत्तिभंगो । बारसक० - णवणोक० अताणु ० चउक्क० भंगो । सम्म० - सम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणिसंका० । अवदिसंका० संखे० गुणा । असंखे ०भागवड्ढि संका० संखे० गुणा । असंखे० गुणवड्रिसं० संखे० गुणा । संखे० भागवढि सं० संखे० गुणा । संखे० गुणवड्डिसं० संखे० गुणा । अवत्तव्वसं० संखे० गुणा । संखे० असंखे ० - संखे० विशेषता है कि संज्वलनत्रिक और पुरुषवेदकी असंख्यात गुणवृद्धिके संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं । उसे पदके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष भंग उसी प्रकार है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि के संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि के संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे वक्तव्यपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । Jain Education International $ ९२१. आदेशसे सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवों में छब्बीस प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग प्रोघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणहानि के संक्रामक जीव नहीं हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यातहाकिम नहीं है । मनुष्यों में मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग अनन्तानुबन्धीचतुष्क के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि के संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीत्र संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धि के संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वक्तव्यपदके For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 438 439 440 441 442