Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिसंकमे सामित्तं
३१५ ६४२. खवयस्से त्ति वयणेणोवसामयादीणं पडिसेहो कओ। तत्थ वि अणियट्टिखवयस्सेव, अण्णत्थ तजहण्णभावाणुववत्तीदो। होतो वि सोदएणेव सेढिमारूढस्स होइ । माणादीणमुदएण चढिदस्स कोहसंजलणचरिमफालीए अंतोमुहुत्तूणवेमाससरूवेणाणुवलंभादो । कुदो एवं ? तत्थ तदो हेट्ठिमसंखेजगुणट्ठिदिबंधविसए चेव तण्णिल्लेवणुवलंभादो। सोदएण वि चढिदस्स अपच्छिमट्ठिदिबंधसंकामणदाए चेव सामित्तसंभवो, दुचरिमादिविदिबंधाणमेत्तो विसेसाहियाणं संकामणावत्थाए जहण्णसामित्तविरोहादो । तत्थ वि चरिमसमयसंछुहमाणयस्सेव पयदजहण्णसामित्तं णेदरत्थ । किं कारणं हेट्टिमहेट्ठिमफालीणमणंतराणंतरोवरिमफालीहिंतो एगेगणिसेगवुड्डिदंसणेण तत्थ जहण्णसामित्तविहाणाणुववत्तीदो। कुदो वुण समाणट्ठिदिबंधविसयाणमेदासिं फालीणमेवं विसरिसभावो चे ? ण, दुचरिमादिसमयपबद्धचरिमफालीणं हेद्विमहेट्ठिमसमएसु चेव परिच्छिण्णाबाहाणं संबंधेण तहाभावसिद्धीदो । तदो चरिमसमयणवकबंधचरिमफालिविसए चेव जहण्णसामित्तमिदि गिरवजं । एवं ताव सोदएणेव चढिदस्स खवयस्स कोधवेदगद्धाचरिमसमयणवकबंधमावलियादीदं संकामेमाणयस्स समयूणा
६ ६४२, 'खवयस्स' इस वचन द्वारा उपशामक आदिका निषेध किया है। उसमें भी अनिवृत्तिक्षपकके ही यह जघन्य स्वामित्व होता है, क्योंकि अन्यत्र प्रकृत जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त हो सकता। अनिवृत्तिक्षपकके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता हुआ भी स्वोदयसे जो क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है उसीके होता है, क्योंकि मान आदिके उदयसे जो क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है उसके क्रोधसंज्वलनकी अन्तिम फालि अन्तर्मुहूर्त कम दो महीनाप्रमाण नहीं पाई जाती है।
शंका-ऐसा क्यों है ?
समाधान-क्योंकि वहां पर उससे नीचे संख्यातगुणे स्थितिबन्धके रहते हुए ही संज्वलन क्रोधका अभाव उपलब्ध होता है।
स्वोदयसे चढ़े हुए जीवके भी अन्तिम स्थितिबन्धका संक्रम होते समय ही प्रकृत स्वामित्व सम्भव है, क्योंकि द्विचरम आदि स्थितिबन्ध इससे विशेष अधिक होते हैं, अतः उनका संक्रम होते समय जघन्य स्वामित्व होनेमें विरोध आता है। उसमें भी जो अन्तिम समयमें संक्रम कर रहा है उसीके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है अन्यके नहीं, क्योंकि इससे नीचे नीचेकी जितनी भी फालियां हैं उनमें आगे आगेकी फालियोंसे एक एक निषेककी वृद्धि देखी जानेके कारण बहां जघन्य स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता है।
शंका-जबकि इन फालियोंका स्थितिबन्ध समान होता है तब इनमें इस प्रकारकी विदृतशता कैसे होती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि नीचे नीचेके समयोंमें ही जिनकी आबाधा समाप्त होती है ऐसी द्विचरम आदि समयप्रबद्ध सम्बन्धी अन्तिम फालियोंके सम्बन्धसे इस प्रकारकी विसदृशता सिद्ध हो जाती है।
__ इसलिये अन्तिम समयके नवकबन्धकी अन्तिम फालिके आश्रयसे ही जघन्य स्वामित्व होता है यह युक्तियुक्त है । इस प्रकार जो क्षपक स्त्रोदय से ही क्षपकणि पर चढ़कर क्रोधवेदकके कालके अन्तिम समयमें नवकबन्ध करके एक आवलिके बाद उसका संक्रम करने लगा है और
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