Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ पालिय सव्वलहुं दंसणमोहक्खवणाए वावदस्स पयदजहण्णकालो परूवेयव्वो। उक्कस्सेण सादिरेयवेछावहिसागरोवमकालपरूवणा एवं कायव्वा । तं जहा-एक्को मिच्छाइट्ठी सम्मत्तं घेत्तूण सव्वमहंत'मुवसमसम्मत्तद्धमप्पदरसंकममणुपालिय वेदयसम्मत्तेण पढमछावट्ठिमणुपालिय अंतोमुहुत्तावसेसे तम्मि अप्पयरसंकमाविरोहेण मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णो तदो अंतोमुहुत्तेण वेदयसम्मत्तं पडिवजिय विदियछावट्ठिमप्पयरसंकमेणाणुपालिय तदवसाणे अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छ गदो पलिदोवमासंखेजभागमेत्तकालमुव्वेल्लणावावारेणच्छिय सम्मत्तचरिमुव्वेल्लणफालीए तदप्पयरसंकमं समाणिय पुणो वि तप्पाओग्गेण कालेण सम्मामिच्छत्तचरिमफालिमुव्वेल्लिय तदप्पयरकालं समाणेदि । एवं पलिदोवमासंखेजभागब्भहियवेछावहिसागरोवमाणि दोण्हमेदेसि कम्माणमुक्कस्सपयदहिदिसंकमकालो होइ।
8 सेसाणं कम्माणं भुजगारसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ?
७५९. सुगमं । ॐ जहएणणेयसमो, उकस्सेण एगूणवीससमया ।
७६०. एत्थ ताव मिच्छत्तस्सेव भुजगारकालो जहण्णेणेयसमयमेत्तो वत्तव्यो। उक्कस्सेणेगूणवीससमयाणमुप्पत्तिं वत्तइस्सामो-अणंताणु०कोहस्स ताव एको एइंदिओ
जीवके प्रकृत जघन्य काल कहना चाहिए। उत्कृष्टरूपसे साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कालकी प्ररूपणा इस प्रकार करनी चाहिए। यथा-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर सबसे अधिक उपशमसम्यक्त्वके काल तक अल्पतरसंक्रमका पालन कर तथा वेदकसम्यक्त्वके साथ प्रथम छयासठ सागर कालका पालन कर उसमें अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहने पर अल्पतरसंक्रमके अविरोध पूर्वक मिथ्यात्व या सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर द्वितीय छयासठ सागर काल तक अल्पतरसंक्रमके साथ रहा। फिर उसके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक उद्वेलनाके व्यापारके साथ रह कर सम्यक्त्वकी अन्तिम उद्वेलनाफालिके द्वारा उसके अल्पतर संक्रमको समाप्त कर तथा फिर भी तत्प्रायोग्य कालके द्वारा सम्यग्मिध्यात्वकी अन्तिम फालिकी उद्वेलना कर उसके अल्पतरकालको समाप्त करता है । इस प्रकार इन दोनों कर्मोंके अल्पतर स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यतवां भाग अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण होता है।
शेष कर्मोके भुजगारसंक्रामकका कितना काल है ? ६७५६. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल उन्नीस समय है।
६७६०. यहाँ पर मिथ्यात्वके समान भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय कहना चाहिए। उत्कृष्ट काल उन्नीस समयोंकी उत्पत्तिको बतलाते हैं। उसमें सर्व प्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोधका बतलाते हैं-कोई एक एकेन्द्रिय जीव अपने जीवनकालकी अन्तिम श्रावलिके ऊपर
१. ता० प्रतौ सम्भ (व्व ) महतं- श्रा०प्रतौ सव्वमहंत- इति पाठः ।
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