Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 415
________________ ४०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ ६.८६५. का वड्डी णाम ? पदणिक्खेवविसेसो वड्डी। तत्थ तिण्णि अणियोगदाराणि भवंति त्ति पइण्णं काऊण तण्णामणिद्देसकरणट्ठमुवरिमसुत्तमाह ॐ समुक्कित्तणा परूवणा अप्पाबहुए त्ति । १८६६. तत्थ समुक्त्तिणा णाम सव्वकम्माणं एत्तियाओ वड्डीओ एत्तियाओ च हाणीओ अवट्ठाणमवत्तव्वयं च अत्थि पत्थि त्ति संभवासंभवमेत्तपरूवणा । एवं च सामण्णेण समुक्कित्तिदाणं वड्डि-हाणिविसेसाणं विसयविभागपरिक्खा परूवणा त्ति भण्णइ । वड्डि-हाणिविसेसावट्ठाणावत्तव्वसंकामयाणं जीवाणमोघादेसेहि थोवबहुत्तपरूवणा अप्पाबहुअं णाम । एदाणि तिण्णि चेव अणियोगद्दाराणि सामित्तादीणमत्थेव अंतब्भावदंसणादो। तदो समुकित्तणादीणि तेरस अणियोगद्दाराणि उच्चारणासिद्धाणि ण सुत्तबहिन्भूदाणि त्ति घेत्तव्यं । * तत्थ समुकित्तणा। ६८६७. तेसु अणंतरणिहिट्ठाणिओगद्दारेसु समुक्त्तिणा ताव विहासियव्वा त्ति भणिदं होइ । 8 तं जहा६८६८. सुगममेदं पुच्छावक्कं । ६८६५ शंका-वृद्धि किसे कहते हैं ? समाधान-पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं। उसमें तीन अनुयोगद्वार हैं इस प्रकार प्रतिज्ञा करके उसका नामनिर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * समुत्कीर्तना, प्ररूपणा और अल्पबहत्व । ६८६६. सव कर्मोकी इतनी वृद्धि, इतनी हानि, अवस्थान और अवक्तव्य है या नहीं है इसप्रकार इनमेंसे कौन सम्भव है और कौन सम्भव नहीं है इसकी प्ररूपणा करनेको समुत्कीतना कहते हैं। इस प्रकार जिनकी सामान्यसे समुत्कीर्तना की है उनकी वृद्धिविशेष और हानिविशेषकी विषयविभागसे परीक्षा करना प्ररूपणा कहलाती है। तथा वृद्धिविशेष, हानिविशेष, अवस्थान और अवक्तव्यपदके संक्रामक जीवोंके ओघ और आदेशसे अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना अल्पबहुत्व है। इसप्रकार ये तीन ही अधिकार हैं, क्योंकि स्वामित्व आदिकका इन्हींमें अन्तर्भाव देखा जाता है। इसलिए उच्चारणामें प्रसिद्ध समुत्कीर्तना आदिक तेरह अनुयोगद्वार सूत्रसे थहिर्भूत नहीं हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । * प्रकृतमें समुत्कीर्तनाका अधिकार है। ८६७. उन अनन्तर निर्दिष्ट अनुयोगद्वारों में सर्वप्रथम समुत्कीर्तनाका व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * यथा६८६८. यह पृच्छासूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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