Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 430
________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिवड्डिसंकमे खेत्तं ४१७ विहत्तिभंगो। णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० तिण्णिसंज-पुरिसवेद० असंखे०गुणवड्डी सम्म०-सम्मामि० असंखे० गुणहाणिसंका० केत्तिया० ? संखेजा । सव्वणेरइयसव्वतिरिक्ख०-मणुसअपज्ज०-देवा जाव सहस्सारे त्ति विहत्तिभंगो। णवरि सम्म०सम्मामि० असंखे०गुणहाणी णत्थि । मणुसा० विहत्तिभंगो । णवरि बारसक०णवणोक० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० असंखे०गुणहाणिसंका० केत्तिया ? संखेजा । मणुसपजत्त-मणुसिणीसु सव्वपदसंका० संखेजा । आणदादि जाव गवगेवजा त्ति विहत्तिभंगो। णवरि सम्म०-सम्मामि० असंखे०गुणहाणी संखेगुणहाणी णत्थि । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म० संखे गुणहा० णत्थि । एवं जाव० । ८९३. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघो विहत्तिभंगो। णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० तिण्हं संजल० पुरिसवेद० असंखे गुणवड्डी केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। सव्वगइमग्गणासु सव्वपदाणि लोग० असंखे०भागे । तिरिक्खाणं तु विहत्तिभंगो। णवरि सम्म०-सम्मामि० असंखे०गुणहाणी णत्थि । एवं जाव। निर्देश । ओघका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायों के प्रवक्तव्य पदके संक्रामक जीव, तीन संज्वलन और पुरुषवेदके असंख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्योंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यपदके संक्रामक जीव तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में सब पदोंके संक्रामक जीव संख्यात हैं। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि और संख्यातगुणहानि नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानि नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। ८६३. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका तथा तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी असंख्यातगुणवृद्धिके संक्रामकोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण क्षेत्र है। सब गति मार्गणाओंमें सब पदोंके संक्रामकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मात्र तिर्यञ्चोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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