Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 433
________________ ४२० णवरि सम्म० - सम्मामि० असंखे० गुणहाणी सव्वट्टा ति विहत्तिभंगो | णवरि सम्म ० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ संखे० गुणहाणी च णत्थि । अणुद्दिसादि गुणहाणी णत्थि । एवं जाव० । ९ ८९७, भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । * अप्पाबहुत्रं । १८९८. सुगममेदमहियारपरामरसवकं । * सव्वत्थोवा मिच्छुत्तस्स असंखेज्ज गुणहाणि संकामया । १८९९. कुदो १ दंसणमोहक्खवयजीवे मोत्तूण एत्थ तदसंभवादो । * संखेज्जगुणहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा । ९००. कुदो ? सणिपंचिंदियरासिस्स असंखे ० भागपमाणत्तादो । तस्स पडिभागो अंतोमुहुत्तमिदि घेत्तव्वं । * संखेज्जभागहाणिसंकामया संखेज्जगुणा । १९०१. कुदो ? संखेञ्जगुण हाणिपरिणमणवारेहिंतो संखेजभागहाणिपरिणमणवाराणं संखेञ्जगुणत्तुवलंभादो । ण चेदमसिद्धं तिव्वविसोहिंतो मंदविसोहीणं पाएण संभवदंसणादो । * संखेज्जगुणवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा । स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की संख्यातगुणहानि और संख्यातगुणहानि नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक्के देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानि नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ८७. भाव सर्वत्र श्रदायिक है । * अल्पबहुत्वका अधिकार है । $ ८६८. अघिकारका परामर्श करानेवाला यह वाक्य सुगम है 1 * मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं । १८६६. क्योंकि दर्शन मोहनीयके क्षपक जीवोंको छोड़कर अन्यत्र संख्यातगुणहानिका संक्रम सम्भव नहीं है । * उनसे संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । $ ६००. क्योंकि उक्त जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । उसका प्रतिभाग अन्तर्मुहूर्त है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । * उनसे संख्यात भागहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । $६०१. क्योंकि संख्यातगुणहानि के परिणमनके वारोंसे संख्यात भागहानि के परिणमनवार संख्यातगुणे उपलब्ध होते हैं । और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि तीव्र विशुद्धिसे मन्दविशुद्धियोंकी प्रायःकर सम्भावना देखी जाती है। * उनसे संख्यातगुणवृद्धि के संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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