Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 436
________________ ४२३ गा०५८] उत्तरपयडिट्ठिदिवविसकमे अप्पाबहुअं ® असंखेज्जभागवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा। ___६९०९. तं जहा–अवट्टिदसंकमपाओग्गविसयादो असंखेज्जभागवड्डिपाओग्गविसओ असंखेज्जगुणो। अवडिदपाओग्गद्विदिविसेसेसु पादेकं पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागमेत्ताणमसंखे०भागवड्डिवियप्पाणमुप्पत्तिदंसणादो। तदो विसयबहुत्तादो सिद्धमेदेसिमसंखेज्जगुणतं । ® असंखेज्जगुणवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा । ९१०. एत्थ संचयकालबहुत्तं कारणं। तं जहा–मिच्छत्तधुवट्ठिदिं जहण्णपरित्तासंखेजेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तट्ठिदिसंतकम्मादो हेट्ठा चरिमुव्वेलणकंडयपज्जवसाणो असंखेजगुणवड्डिविसयो, एदेहि द्विदिवियप्पेहि सम्मत्तं पडिवजमाणाणं पयारंतरासंभवादो। एदस्स उव्वेलणकालो पलिदोवमस्सासंखेजदिभागमेत्तो। एदेण कालेण संचिदजीवा च पलिदोवमासंखेजभागमेत्ता । एदे वुण अंतोमुहुत्तकालसंचिदासंखेजभागवडिपाओग्गजीवेहितो असंखे०गुणा, कालाणुसारेण गुणयारपवुत्तीए णिव्वाहमुवलंभादो । ण च तेसिमंतोमुहुत्तसंचिदत्तमसिद्धं, मिच्छत्तं गंतूणंतोमुहुत्तादो उवरि तत्थच्छमाणाणं संखेजभागवड्डि-संखे०गुणवड्डिसंकमाणं पाओग्गभावदंसणादो । तम्हा संचयकालमाहप्पेणेदेसिमसंखेजगुणत्तमिदि सिद्धं । ® संखेज्जभागवडिसंकामया असंखेज्जगुणा। * उनसे असंख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६६०६. यथा-अवस्थितपदके संक्रमके योग्य विषयसे असंख्यातभागवृद्धिप्रायोग्य विषय असंख्यातगुणा है, क्योंकि अवस्थितपदके योग्य स्थितिविशेषोंमें अलग अलग पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिरूप विकल्पोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए विषयका बहुत्व होनेके कारण ये असंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध होता है। * उनसे असंख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६६१०. यहाँ पर सञ्चयकालका बहुतपना कारण है। यथा-मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिको जघन्य परीतासंख्याठसे भाजित कर (वहाँ प्राप्त हुए एक खण्डमात्र स्थितिसत्कर्मसे नीचे अन्तिम उद्वेलनकाण्डक तक असंख्यातगुणवृद्धिका विषय है, क्योंकि इन स्थितिविकल्पोंके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। इसका उद्वेलनाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और इस कालके भीतर सश्चित हुए जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । परन्तु ये जीव अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सञ्चित हुए असंख्यातभागवृद्धिके योग्य जीवोंसे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि कालके अनुसार गुणकारकी प्रवृत्ति निर्बाधरूपसे उपलब्ध होती है। ये जीव अन्तर्मुहूर्तके भीतर सञ्चित होते हैं यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वमें जाकर अन्तमुहूर्तके ऊपर वहाँ रहनेवाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धिसंक्रम और संख्यातगुणवृद्धिसंक्रमकी योग्यता देखी जाती है । इसलिए सञ्चयकालके माहात्म्यसे ये असंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध होता है। . * उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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