Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 418
________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिवाढिसंकमे समुक्त्तिणा ४०५ दसणादो। एवमेदेसि वडि-हाणि-अवट्ठाणाणं मिच्छत्तविसयाणं समुक्त्तिणं काऊण तत्थावत्तव्वसंकमाभावं परूवेदुमुत्तरसुत्तमाह अवत्तव्वं पत्थि। ८७१. कुदो ? असंकमादो तस्स संकमपवुत्तीए सव्वद्धमणुवलंभादो । 8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चउव्विहा वड्डी चउव्विहा हाणी अवठ्ठाणमवत्तव्वयं च । ६८७२. तं जहा-तत्थ ताव असंखेजभागवड्डिविसयपरूवणा कीरदे-एको मिच्छत्तधुवट्ठिदिमेत्तसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदीए उवरि दुसमयुत्तरमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मिओ सम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थासंखेजभागवड्डीए पढमवियप्पो होइ । संपहि पढमवारणिरुद्धसम्मत्तद्विदिसंकमादो तिसमयुत्तरादिकमेण मिच्छत्तधुवट्ठिदि वड्डाविय तेणेव णिरुद्धढिदिसंतकम्मेण सम्मत्तं गेण्हमाणस्स सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं असंखेजभागवड्डी ताव दट्ठव्वा जाव णिरुद्धसम्मत्तट्ठिदिमुक्कस्ससंखेजेण खंडिय तत्थ रूवूणेयखंडमेत्ते वड्डिवियप्पे लद्धणासंखेजभागवड्डी पज्जवसिदा त्ति । पुणो एदम्हादो पढमवारणिरुद्धसम्मत्तट्ठिदिसंकमादो समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिसम्मत्तद्विदीणं पादेकं णिरंभणं काऊण तत्तो दुसमयुत्तरादिकमेण मिच्छत्तहिदि वड्डाविय सम्मत्तं गेण्हमाणाणमसंखेजभागवड्विवियप्पा वत्तव्वा जाव तप्पाओग्गंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तसम्मत्तहिदि त्ति । णवरि मिच्छत्तधुवमिथ्यात्वविषयक इन वृद्धि, हानि और अवस्थानकी समुत्कीर्तना करके वहाँ पर अवक्तव्यसंक्रमका अभाव है यह कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * अवक्तव्य नहीं है। ६८७१. क्योंकि उसकी असंक्रमसे संक्रमकी प्रवृत्ति कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारको हानि, अवस्थान और अवक्तव्य है। ६८७१. यथा-उसमें सर्वप्रथम असंख्यातभागवृद्धिका विषय कहते हैं-जिसकी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यकी स्थिति मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके बराबर है ऐसा कोई एक जीव मिथ्यात्वके दो समय अधिक स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ उसके असंख्यातभागवृद्धिका प्रथम विकल्प होता है। अब पहली बार सम्यक्त्वके विवक्षित स्थितिसंक्रमसे मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिको तीन समय अधिक आदिके क्रमसे बढ़ाकर उसी विवक्षित स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि तब तक जाननी चाहिए जब जाकर सम्यक्त्वकी विवक्षित स्थितिमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देकर जो एक भाग लब्ध प्रावे उससे एक कम वृद्धिविकल्पोंके आश्रयसे असंख्यातभागवृद्धि अन्तको प्राप्त हो जाती है। फिर प्रथमबार विवक्षित सम्यक्त्वके इस स्थितिसंक्रमसे एक समय अधिक, दो समय अधिक आदि के क्रमसे सम्यक्त्वकी स्थितियोंको पृथक् पृथक् विवक्षित कर उनमें से प्रत्येक स्थितिविकल्पके साथ दो समय अधिक आदिके क्रमसे मिथ्यात्वकी स्थितिको बढ़ाकर सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंके असंख्यातभागवृद्धिके विकल्प तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण सम्यक्त्वकी स्थितिके प्राप्त होने तक कहने चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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