Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 390
________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिभुजगार संकमे गाणाजीवेहिं भंगविचओ संकामयाणमणंतजीवाणं सव्वद्धमविच्छिण्णपवाहसरूवेणावद्वाणदंसणादो । * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सत्तावीस भंगा । $ ७७९. कुदो, भुजगारावद्विदाव व्वसंकामयाणं भयणिजत्तेणाप्पयरसंकामयाणं धुवत्तदंसणादो । तदो भयणि पदाणि विरलिय तिगुणिय अण्णोण्णव्भासे कए धुवसहिया सत्तावीस भंगा उप्पञ्जंति । * सेसाणं मिच्छुत्तभंगो । ९ ७८०. सोलसकसाय - णवणोकसायाणमिह सेसत्तेण गहणं, तेसिं च पयदपरूवणाए मिच्छत्तभंगो कायव्वो, भुजगारादिपदसंकामयाणं णियमा अत्थित्तेण तत्तो विसेसाभावादो | अवत्तव्वपयगदो दु थोवयरो विसेसो एत्थस्थिति तण्णिद्धारणमुत्तरसुत्तमाह * णवरि अवत्तव्वसंकामया भजियष्वा । $ ७८१. मिच्छत्तस्सावत्तव्वसंकामया णत्थि । एदेसिं पुण अवत्तत्व्वसंकामया अत्थि ते च भजियव्वा त्ति उत्तं होइ । संपहि एदस्सेव भंगविचयस्स सुतणिहिस्स फुडीकरणमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा - णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य ओघेण सम्म० - सम्मामि० - मिच्छ० विहत्तिभंगो | सोलसक० णवणोक० भुज० - अप्पद ० - अवडि० णियमा अत्थि । सिया एदे च अवत्तव्व ३७७ समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व के भुजगारादिपदोंके संक्रामक अनन्त जीवोंका सर्वदा प्रवाहका विच्छेद हुए बिना अवस्थान देखा जाता है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्ताईस भंग होते हैं । १७७६. क्योंकि भुजगार अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंके भजनीयपनेके साथ अल्पतरसंक्रामक ध्रुवरूप देखे जाते हैं, इसलिए भजनीय पदका विरलन कर तथा उन्हें तिगुणाकर परस्पर गुणा करने पर ध्रुव भंगके साथ सत्ताईस भंग उत्पन्न होते हैं । उदाहरण – ×× ३ = २७ भंग । इन सत्ताइस भंगोंमें ध्रुव भंग सम्मिलित है । * शेष प्रकृतियोंका भंग मिध्यात्वके समान है । ६७८०. सोलह कषायों और नौ नोकषायका यहाँ पर शेष पदद्वारा ग्रहण किया है। उनका प्रकृत प्ररूपणा में मिथ्यात्वके समान भंग करना चाहिए, क्योंकि इनके भुजगार आदि पदोंका नियमसे अस्तित्व है, अतः उसके कथनसे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है । मात्र अवक्तव्यपदगत यहाँपर थोड़ीसी विशेषता है, इसलिए उसका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं— * किन्तु उनके अवक्तव्यसंक्रामक जीव भजनीय हैं । ७=१. मिथ्यात्व के अवक्तव्य संक्रामक जीव नहीं हैं । परन्तु इनके अवक्तव्यसंक्रामक जीव हैं और वे भजनीय हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब सूत्रनिर्दिष्ट इसी भंगविचयका स्पष्टीकरण करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा - नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिध्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सोलह कषायों और नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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