Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिविदिभुजगारसंकमे अप्पाबहुअं
३८७ ८२२. अवट्ठिदसंकमावट्ठाणकालादो अप्पयरसंकमपरिणामकालस्स संखेज्जगुणत्तादो।
* एवं सेसाणं कम्माएं ।
६.८२३. जहाणंताणुबंधीणं पयदप्पाबहुअपरूवणा कया एवं चेव सेसकसायणोकसायाणं पि कायव्वं, विसेसाभावादो । एवमोघपरूवणा सुत्तणिबद्धा कया।
१८२४. एत्तो एदस्स फुडीकरणट्ठमादेसपरूवणटुं त तदुच्चारणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-अप्पाबहुआणु० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० विहत्तिभंगो। सोलसक०-णव गोक० सव्वत्थोवा अवत्त०संका० । भुज० संका० अणंतगुणा । अवट्ठि०संका० असंखे गुणा० । अप्पद०संका० संखे०गुणा। मणुसेसु सम्म०--सम्मामि०-मिच्छ० विहत्तिभंगो। सोलसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा अवत्त०संका० । भुज०संका० असंखेजगुणा। अवढि संका० असंखे गुणा। अप्पयर०संका० संखे० गुणा । एवं मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वत्थ संखेजगुणं कायव्वं । सेसगइमग्गणाभेदेसु विहत्तिभंगो । एवं जाव० ।
___ एवमुत्तरपयडिट्ठिदिसंकमस्स भुजगारो समत्तो ।
६८२२. क्योंकि अवस्थितसंक्रामकोंके अवस्थानकालसे अल्पतरसंक्रामकोंका परिणामकाल संख्यातगुणा है।
* इसीप्रकार शेष कर्मोंका प्रकृत्त अल्पबहुत्व है।
६८२३. जिस प्रकार अनन्तानुबन्धियोंके प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन किया है इसीप्रकार शेष कषायों और नोकषायोंके अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । इसप्रकार सूत्रोंमें निबद्ध ओघप्ररूपणा की।
८२४. आगे इसे स्पष्ट करनेके लिए और आदेशप्ररूपणा करनेके लिए उसकी उच्चारणाका अनुगम करते हैं। यथा-अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोषसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सोलह कषायों और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारसंक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अवस्थितसंक्रामक जोव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्योंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। सोलह कषायों और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए। गतिमार्गणाके शेष भेदोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमका भुजगार समाप्त हुआ।
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