Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 403
________________ ३६० जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ चउट्ठाणियजवमझं दुविहं-सादपाओग्गमसादपाश्रोग्गं च । तत्थ पयरणवसेणासादपाओग्गस्स गहणमिह विण्णेयं, अण्णहा सव्वुक्कस्सद्विदिबंधहेदुतिब्बयरदाहपरिणामाणुववत्तीदो । सव्वुक्कस्सविसोहिणिबंधणस्स सादचउट्ठाणजवमज्झस्स सव्वमहंतदाहहेउत्तविरोहादो च । तदो असादचउढाणियाणुभागबंधपाओग्गजवमज्झस्स उवरि जा अंतोकोडाकोडी णिब्वियप्पंतोकोडाकोडीदो संखेजगुणहीणा दाहट्ठिदिसण्णिदा सेह गहेयव्वा, हेट्ठिमासेसद्विदिसंकमवियप्पाणमुक्कस्सदाहविरुद्धसहावत्तादो। ण च सव्वमहंतेण दाहेण विणा उक्कस्सओ हिदिवंधो होइ, विप्पडिसेहादो । तम्हा चउट्ठाणियजवमज्झस्सुवरि जो एवंविहमंतोकोडाकोडिट्ठिदिसंकममाणो समवढिदो सव्वमहंतेण दाहेण परिणदो संतो उक्कस्सद्विदि पबंधदि तस्स आवलियादीदं संकामेमाणयस्स पयदकम्माणमुक्कस्सिया वड्डी ट्ठिदिसंकमविसया होदि त्ति सिद्धं । एत्थ वड्डिपमाणं दाहहिदिपरिहीणसत्तरि-चालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तअणंतरहेट्ठिमसमयसंकमादो सामित्तसमए डिदिसंकमस्स तेत्तियमेत्तेण बुड्डिदंसणादो । एवमेदेसिं कम्माणमुक्कस्सवड्डीए सामित्तं परूविय तस्सेवावट्ठाणसामित्तं पि उक्कस्सयं विदियसमए होइ त्ति जाणावणटुं सुत्तमुत्तरं भणइ 3 तस्सेव से काले उकस्सयमवहाणं । ६.८३१. तस्सेव उक्कस्सवुड्डिसंकमसामित्तमुवगयस्स से काले तत्तियमेव संकामेमाणयस्स उक्कस्समवट्ठाणं होदि । कुदो? उक्कस्सवुड्डीए अविणदुसरूवेण तत्थावट्ठाणदंसणादो। प्रायोग्य । उनमेंसे प्रकरणवश असातप्रायोग्य यवमध्यका यहाँ पर ग्रहण जानना चाहिए, अन्यथा सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्धका हेतुभूत तीव्रतर दाहपरिणामकी उत्पत्ति नहीं बन सकती तथा सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिकारणक सातचतु:स्थान यवमध्यके सर्वोत्कृष्ट दाहहेतुक होने में विरोध आता है। इसलिए असातचतुःस्थानीय अनुभागबन्धके योग्य यवमध्यके ऊपर निर्विकल्प अन्तःकोड़ाकोड़ीसे संख्यातगुणी हीन जो दाहसंज्ञावाली अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थिति है उसे यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अधस्तन समस्त संक्रमविकल्प उत्कृष्ट दाहके विरुद्ध स्वभाववाले हैं। और सर्वोत्कृष्ट दाहके बिना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेका निषेध है। इसलिए चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर जो इस प्रकारकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका संक्रम करता हुआ स्थित है वह सर्वोत्कृष्ट दाहसे परिणत होकर उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है उसके एक आवलिके वाद संक्रमण करते हुए प्रकृत कर्मों की स्थितिसंक्रमविषयक उत्कृष्ट वृद्धि होती है यह सिद्ध हुआ। यहाँ पर वृद्धिका प्रमाण दाहस्थितिसे हीन सत्तर और चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति है, क्योंकि अनन्तर पूर्व समयमें हुए संक्रमसे स्वामित्वके समयमें स्थितिसंक्रमसे तत्प्रमाण वृद्धि देखी जाती है। इसप्रकार इन कर्मोकी उत्कृष्ट वृद्धिके स्वामित्वका कथन करके उसीके उत्कृष्ट अवस्थान स्वामित्व दूसरे समयमें होता है यह जतानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । ६८३१. उत्कृष्ट वृद्धिसंक्रमके स्वामित्वको प्राप्त हुए उसी जीवके अनन्तर समयमें उतना ही संक्रम करते हुए उत्कृष्ट अवस्थान होता है, क्योंकि उत्कृष्ट वृद्धिका विनाश हुए विना वहाँ पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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