Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 401
________________ ३८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ * पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिषिण अणियोगद्दाराणि-समुचित्तणा सामित्तमप्पाबहुअं च। . ८२५. एदेण सुत्तेण पदणिक्खेवे तिण्हमणिओगद्दाराणं संभवो तण्णामणिद्देसो च कओ। एवमेदेहि तीहि अणिओगद्दारेहि पदणिक्खेवं परूवेमाणो जहा उद्देसो तहा णिदेसो त्ति णायमवलंबिय समुकित्तणमेव ताव परूवेदुमुत्तरसुत्तमाह ॐ तत्थ समुकित्तण सव्वासिं पयडीणमुक्कस्सिया वड्डी हाणी अवहाणं च अस्थि । ६८२६. तत्थ तेसु तिसु अणियोगद्दारेसु समुक्कित्तणा ताव उच्चदे-तत्थ दुविहो णिद्देसो ओघादेसभेदेण । ओधेण ताव सव्वासिं मोहपयडीणमत्थि उक्कस्सिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च । द्विदिसंकमस्से त्ति एत्थाहियारसंबंधो कायव्वो। * एवं जहएणयस्स वि णेदव्वं । ६८२७. जहा सव्वासि पयडीणमुक्कस्सवड्डि-हाणि-अवट्ठाणसंकमो समुक्कित्तिदो एवं जहण्णयस्स वि वड्डि-हाणि-अवट्ठाणसंकमस्स समुकित्तणं णेदव्वं । तं कधं ? 'सव्वासिं पयडीणमत्थि जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च । एवमोघसमुक्त्तिणा गया । आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो। * पदनिक्षेपका अधिकार है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । ६८२५. इस सूत्र द्वारा पदनिक्षेपमें तीन अनुयोगद्वारोंकी सम्भावनाके साथ उनके नामोंका निर्देश किया है । इसप्रकार इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा पदनिक्षेपका कथन करते हुए उद्देशके अनुसार निदेश किया जाता है इस न्यायका अवलम्बन लेकर सर्वप्रथम समुत्कीर्तनका ही कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * प्रकृतमें समुत्कीर्तना इसप्रकार है-सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। ६८२६. उन तीन अनुयोगद्वारोंमें सर्वप्रथम समुत्कीर्तना कथन करते हैं । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है । 'स्थितिसंक्रमका' इसप्रकार यहाँ पर अधिकारका सम्बन्ध कर लेना चाहिए। * इसीप्रकार जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान भी जानना चाहिए । ६८२७. जिस प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानसंक्रमकी समुत्कीर्तना की उसी प्रकार जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानसंक्रमकी भी समुत्कीर्तना जाननी चाहिए। . शंका-वह कैसे ? समाधान- सब प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इस प्रकार ओघसमुत्कीर्तना समाप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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