Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 397
________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ * सोलसकसायणवणेकसायाणं भुजगार - अप्पदर अवडिदसंकामयाणं पत्थि अंतरं । ६८०८. कुदो १ सव्वद्धमेदेसु अनंतस्स जीवरासिस्स जहापविभागमवट्ठाण - दंसणादो । एवमोघेण णाणाजीव संबंधिणी अंतरपरूवणा गया । ३८४ १८०९. एत्तो आदेसपरूवणाए विहत्तिभंगो। णवरि मणुसतिए बारसक० - णवणोक॰ अवत्तव्वसंकामयंतरं जह० एयस०, उक्क० वासपुधत्तं । ९ ८१०, भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । * अप्पाबहुत्रं । $ ८११. मिच्छत्तादिपयडिपडिबद्धभुजगारादिसं कामयाणमप्पाबहु वण्णइस्सामो ति पञ्जाव णमेदमहियारसंभालणवकं वा । * सव्वत्थोवा मिच्छत्तभुजगार संकामया । ६ ८ १२. दुसमयसंचिदत्तादो | * अवद्विदसंकामया असंखेज्जगुणा | ९८१३. कुदो ? अंतोमुहुत्त संचियत्तादो । * अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा । * सोलह कषायों और नौ नोकपायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित - संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । ९८०८. क्योंकि इन पदोंमें अनन्त जीवराशिका अपने-अपने प्रतिभाग के अनुसार सर्वदा स्थान देखा जाता है। इस प्रकार ओघसे नाना जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्तरप्ररूपणा समाप्त हुई । ९८०६. आगे आदेशकी प्ररूपणा करने पर उसका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक में बारह कषायों और नौ नोकषायों के अवक्तव्यसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है । ९८१०. भाव सर्वत्र श्रदयिक है । * अल्पबहुत्वका अधिकार है । $ =११. मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले भुजगार आदि पदों के संक्रामक के अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है या अधिकारकी सम्हाल करनेवाला वाक्य है * मिथ्यात्व के भुजगारसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं । १८१२. क्योंकि इनका समय दो समय में हुआ है * उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । ९८१३. क्योंकि इनका समय अन्तर्मुहूर्त में हुआ है । * उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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