Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिट्ठिदिभुजगार संक्रमे णाणाजीवहिं कालो
३७६
raणोक० अवत्त० लोगस्स असंखे० भागे खेत्तं पोसणं च कायव्वं । एवमेदेसिमप्पवण्णणिजाणं थोवयरविसेससंभवपदुष्पायण मणुवादं काऊण संपहि णाणाजीव संबंधिकालपरूवणमुरिमं सुत्तपबंधमणुसरामो
* पापाजीवेहि कालो ।
९ ७८५, सुगममेदं सुत्तं, अहियार संभालणमेत्तवावदत्तादो ।
* मिच्छत्तस्स भुजगार- अप्पदर- अवद्विदसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा !
९ ७८६. कुदो ? ति वि कालेसु एदेसिं विरहाणुवलंभादो । * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं
केदचिरं कालादो होंति ?
भुजगार अवट्ठिद अवत्तव्वसंकामया
६ ७८७. सुबोहमेदं पुच्छासुतं । * जहणणेणेयसमत्रो ।
S७८८. दो मेसिंकम्माणमेयसमयं भुजगारादिसंकामयत्तेण परिणदणाणाजीवाणं विदियसमए सव्वेसिमेव अप्पदरसंकामयपज्जाय परिणामे तदुवलद्धीदो । * उक्कस्सेण आवलियाए असंज्जदिभागो ।
६७८९. कुदो ? णाणाजीवाणुसंघाणेण तेसिमेत्तियमेत्तकालावट्ठाणोवलंभादो ।
स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण करना चाहिए । इस प्रकार अल्पवर्णनीय इन अनुयोगद्वारोंकी थोड़ीसी सम्भव विशेषताका कथन करनेके लिए उल्लेख करके अब नाना जीवसम्बन्धी कालका कथन करनेके लिए आगे के सूत्रप्रबन्धका अनुसरण करते हैं
* नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका अधिकार है ।
७८५. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अधिकारकी सम्हाल करनेमात्रमें इसका व्यापार है । * मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितसंक्रामकका कितना काल है ? सर्वदा है ।
७६. क्योंकि तीनों ही कालोंमें इन पदों का विरह नहीं उपलब्ध होता ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंका कितना काल है ?
६७८७. यह पृच्छासूत्र सुबोध है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
७८. इन दोनों कर्मों के एक समय तक भुजगारादिसंक्रमरूपसे परिणत हुए नाना जीवोंके दूसरे समयमें सभीके अल्पतरसंक्रमरूप पर्यायसे परिणत होने पर उक्त काल उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
६७८९ क्योंकि नाना जीवोंका सन्ततिका विच्छेद न होकर निरन्तररूपसे उन पदोंका इतने कालतक ही अवस्थान उपलब्ध होता है ।
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