Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
३७४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ®णवरि अणंताणुबंधीणमप्पयरसंकामयंतरं जहणणेणेयसमओ उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
$ ७७०. मिच्छत्तस्स अप्पयरसंकामयंतरं उक्कस्सेणंतोमुहत्तमेव, इह वुण सादिरेयवेछावहिसागरोवममेत्तमुवलब्भदि त्ति एसो विसेसो। सव्वेसिमवत्तव्वपदगओ अण्णो वि विसेसो संभवइ त्ति पदुम्पायणट्ठमिदमाह । .. सव्वेसिमवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणणे एंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिय देसूणं ।।
७७१. अणंताणुबंधीणं विसंजोयणापुव्वसंजोगे सेसकसाय-णोकसायाणं च सव्वोवसामणापडिवादे अवत्तव्वसंकमस्सादिं करिय अंतरिदस्स पुणो जहण्णुकस्सेणंतोमुहत्तद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तमंतरिय पडिवण्णतब्भावम्मि तदुभयसंभवदंसणादो । एवमेदेसिमंतरगयं विसेसं जाणाविय संपहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तभुजगारादिपदाणमंतरपमाणपरिच्छेदकरणट्ठमिदं सुत्तमाह
सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवट्ठिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहरणेणंतोमुहुत्तं ।
७७२. पुव्वुप्पण्णसम्मत्तादो परिवदिय मिच्छत्तढिदिसंतवुड्डीए सह पुणो वि सम्मत्तं पडिवजिय समयाविरोहेण भुजगारमवद्विदं च एयसमयं कादूणप्पदरेणंतरिय
* किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अल्पतरसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर है।
६७७०. मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ही है। किन्तु यहाँ पर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण उपलब्ध होता है इसप्रकार इतनी विशेषता है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी अवक्तव्यपदगत अन्य विशेषता भी सम्भव है, इसलिए उसे कहनेके लिए इस सूत्रको कहते है
* सब प्रकृतियोंके अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।
६७७१. अनन्तानुबन्धियोंके विसंयोजनापूर्वक संयोगके समय तथा शेष कषायों और नोकषायोंके सर्वोपशामनासे गिरते समय अवक्तव्यसंक्रमका आदि करा कर तथा दूसरे समयमें अन्तरको प्राप्त हुए जीवके पुनः जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालका अन्तर देकर अवक्तव्यपदके प्राप्त होनेपर उक्त दोनों अन्तरकाल सम्भव दिखलाई देते हैं। इसप्रकार इन कर्मोंकी अन्तरगत विशेषताको जताकर अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार आदि पदोंके अन्तरके प्रमाणका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अवस्थितसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है।
६७७२. पूर्वमें उत्पन्न हुए सम्यक्पसे गिरकर मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मको वृद्धिके समय फिर भी सम्यक्त्वको प्राप्त होकर यथाविधि भुजगार और अवस्थितपदको एक समय करके
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org