Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 385
________________ ३७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ जह० एयस०, उक्क० सत्तारस समया । मणुस ०३ पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो | णवरि पयडीणमवत्त० अत्थि तासिमेयसमओ ! ९७६५. देवेसु मिच्छ० - बारसक-णवणोकसाय० भुज० जह० एयसमओ, उक्क० तिणि समया अट्ठारस समया । अप्पद० - अवट्ठि ० विहत्तिभंगो। णवरि णवुंसय वेद० भुज० जह० एयसमओ, उक्क० सत्तारस समया । अनंताणु०४ अपच्चक्खाणभंगो । वरि अवत्त० जहण्णु० एयसमओ | सम्म० -सम्मामि० विहत्तिभंगो । एवं भवण०वाणवेंतर० । णवरि सगट्ठिदी । जोदिसियादि जाव सहस्सार त्तिविदियपुढविभंगो । वरि सगदी । णदादि सव्वट्टा त्ति विहत्तिभंगो | एवं जाव० । * एतो अंतरं । $ ७६६. एत्तो उवरि अंतरं वत्तइस्सामो चि पहजामुत्तमेदं । तस्स दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थोधपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तणिदेसो । और पुरुषवेदके भुजगार संक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । मनुष्यत्रिक में पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें जिन प्रकृतियों का अवक्तव्यपद है उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । विशेषार्थ — ऐसा नियम है कि मिध्यादृष्टि जीव मरकर जिन वेदवालों में उत्पन्न होता है उसके उसी वेदका बन्ध होता है । इसलिए यहाँ पर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकों में स्त्रीवेद के भुजगार के सत्रह समय तथा तिर्यञ्च योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भुजगार के सत्रह समय कहे हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें भी इसीप्रकार जान लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है । § ७६५, देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगार संक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वका तीन समय तथा शेषका अठारह समय है । अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसक वेद के भुजगारपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । अनन्तानुबन्धचतुष्कका भंग प्रत्याख्यानावरण के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके वक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । * आगे अन्तरकालका अधिकार है । $ ७६६. इससे आगे अन्तरको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है । उसका निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघका कथन करनेके लिए आगे सूत्रका निर्देश करते हैं--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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