Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 384
________________ गा० ५८] उत्तरपयडिट्ठिदिभुजगारसंकमे एयजीवेण कालो . ३७१ ६७६४. तिरिक्ख-पंचिंतिरिक्खतिय० ३ मिच्छ०बारसक०--णवणोक० भुज० जह० एयसमओ, उक्क० चत्तारि समया एगूणवीससमया । अप्प०-अवढि० विहत्तिभंगो। एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त ० जहण्णु० एयसमओ। सम्म०-सम्मामि० विहत्तिभंगो। णवरि पंचिंतिरि०पज ० इत्थिवेद० भुज० जह० एयसमओ, उक्क० सत्तारस समया । जोणिणीसु पुरिस-णqसयवेद० भुज० जह० एगसमओ, उक्क० सत्तारस समया। पंचिं०तिरि०अपज -मणुसअपञ्ज० मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० भुज० जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारि समया एगूणवीसं समया । अप्पदर०-अवढि० जह० एयस०, उक्क० अंतो० । सम्म०-सम्मामि० अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतो०। णवरि इत्थिवे०-पुरिसवे० भुज० विशेषार्थ-जो असंज्ञी जीव दो विग्रहसे नरकमें उत्पन्न होता है उसके दूसरे समयमें अद्धाशयसे एक भुजगार समय सम्भव है तीसरे समयमें संज्ञी होनेसे भुजगार समय प्राप्त होता है और चौथे समयमें संक्लेशक्षयसे भुजगारसमय सम्भव है। इस प्रकार नरकमें लगातार तीन समय तक भुजगारबन्ध होनेसे एक आवलिके बाद लगातार वहाँ पर तीन समय तक भुजगार संक्रम भी सम्भव है, इसलिए सामान्यसे नरकमें मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। यतः असंज्ञी जीव प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होता है, अतः वहाँ भी यह काल इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र द्वितीयादि पृथिवियोंमें असंज्ञी जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता अतः वहाँ यह काल अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे दो समय ही जानना चाहिए । स्थितिविभक्तिके भुजगार अनुयोगद्वारमें नरकमें बारह कषायों और नौ नोकषायोंके भुजगारका उत्कृष्ट काल सत्रह समय ही बतलाया है। वहाँ अठारह समयका निषेध किया है। किन्तु यहाँ पर भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट काल अठारह समय कहा है सो इसे प्राप्त करते समय नरकमें शरीर ग्रहणके पूर्वतक सोलह भुजगार समय प्राप्त करनेसे, सत्रहवें समयमें संज्ञीके योग्य स्थितिबन्ध करानेसे और अठारहवें समयमें संक्लेशक्षयसे भुजगारबन्ध करानेसे प्राप्त करना चाहिए । यहाँ ये १८ समय जो भुजगारके प्राप्त हुए उनका उसी क्रमसे एक आवलिके बाद संक्रम करानेसे उक्त बारह कषायोंमेंसे प्रत्येक कषायके तथा पाँव नोकपायोंके भुजगार संक्रमका उत्कृष्ट काल अठारह समय आ जाता है। मात्र स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिके इस कालमें कुल विशेषता है सो उसे जानकर घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है। ६७६४. तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भजगारसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वका चार समय तथा शेषका उन्नीस समय है। अल्पतर और अवस्थितपदका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उक्त पदोंका काल जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें स्त्री वेदके भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । तिर्यश्च योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुसकवेदके भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायों और नौ नोकषायोंके भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वका चार समय तथा शेषका उन्नीस समय है। अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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