Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 371
________________ ३५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ मिच्छ० विसे० । पंचिदियतिरिक्ख पंचिं० तिरि०पज्ज० णारयभंगो । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सव्वत्थोवो अनंताणु ०४ जह० ट्ठिदिसं० । सम्म० जह० ट्ठिदिसं० असंखे०गुणो । सम्मामि० जह० द्विदिसंक० विसेसा० । पुरिसवेद० जह० असंखे० गुणो । सेसं णारयभंगो | पंचिं० तिरि० अपज ० - मणुसापज्ज० सव्वत्थोवो सम्मत्त० जह० ट्ठिदिसंक० सम्मामि० जह० ट्ठिदिसं० विसे० । पुरिसवेद० जह० ट्ठिदिसं० असंखे० गुणो । इत्थि - वेद ० ६० जह० द्विदिसं० विसेसा० । हस्स - रइ० विसे० । अरइ - सोग० विसे० । णवुंसयबेद० जह० ट्ठिदिसं० विसे० । सोलसक० -भय-दुर्गुछ० जह० विसे० । मिच्छ० जह०ट्ठिदिसं० विसे० । -लोह ० 0 $ ७४०, मणुस - मणुसप० ओघं । मणुसिणीसु सव्वत्थोवो सम्म ०. संज० जह० डिदिसं० । जट्ठिदिसंक० असंखे० गुणो । मायासंज० जह० डि दिसं० संखेज़गुणो' । जट्ठिदिसं० विसे० । माणसंजल० जह० ट्ठि दिसंक० विसे० । जट्ठिदिसंक ० विसे० । कोहसंज० जह० ट्टि दिसंक० विसे० । जट्ठिदि० विसे० । पुरिसवेद-छण्णोकसा० जह० ट्ठिदिसंक ० तुल्लो संखेजगुणो । इत्थिवेद० जह० विदिसं० असंखे० गुणो णउंसयवेद० जह० ट्ठिदिसं० असंखे० गुणो । अडकसाय० जह० ट्ठिदिसंक० असंखे० गुणो । सम्मामि० I है । उससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें नारकियों के समान भंग है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियों में अनन्तानुबन्धचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रम सबसे स्तोक है। उससे सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा हैं । उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । शेष भंग नारकियोंके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और मनुष्य पोंमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम सबसे स्तोक है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितसंक्रम संख्यातगुणा है । उससे वेदका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे हास्य रतिका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अरति शोक का जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिक्रम विशेष अधिक है। उससे मिध्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है । I 1 ७४० मनुष्य और मनुष्य पर्याप्तकों में ओघ के समान भंग है । मनुष्यिनियोंमें सम्यक्त्व और लोभसंज्वलनका जघन्य स्थितिसंक्रम सबसे स्तोक है। उससे यत्स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । उससे मायाका जघन्य स्थितिसंक्रम संख्यातगुणा है। उससे यत्स्थिति संक्रम विशेष अधिक है । उससे मानका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे यत्स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे क्रोधका जघन्य स्थितिसंक्रमविशेष अधिक है। उससे यत्स्थितिसंक्रम विशेष अधिक हैं । उससे पुरुषवेद और छह नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम परस्पर तुल्य होकर संख्यातगुणा है । उससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । उससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। उससे आठ कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है । उसे १. प्रतौ जह० ट्ठिदिसं० विसे० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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