Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 373
________________ ३६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ७४२. एत्तो भुजगारपरूवणा पत्तावसरो । तत्थ ताव अट्ठपदं कायव्वं, अण्णहा तस्सरूवविसयणिण्णयाणुप्पत्तीदो। किं तमट्ठपदं ? वुच्चदे-अणंतरोसकाविदविदिकंतसमए अप्पदरसंकमादो एण्डिं बहुवयरं संकामेइ त्ति एसो भुजगारसंकमो । अणंत रुस्सकाविदविदिकंतसमए बहुवयरसंकमादो एण्हि थोवयराओ ठिदीओ संकामेइ त्ति एस अप्पयरसंकमो । तत्तियं तत्तियं चेव संकामेइ त्ति एसो अवट्ठिदसंकमो। अणंतरवदिक्तसमए असंकमादो संकामेदि त्ति एसो अवत्तव्वसंकमो । एदेणट्ठपदेण भुजगारअप्पदर-अवद्विदावत्तव्वसंकामयाणं परूवणा भुजगारसंकमो त्ति वुच्चइ । संपहि भुजगारपरूवणाए इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि समुक्त्तिणादीणि अप्पाबहुअपजंताणि । तत्थ समुकित्तणं काऊण पच्छा सामित्तं कायव्वमिदि सुत्ताहिप्पाओ, असमुकित्तिदाणं भुजगारादीणं सामित्तादिविहाणे असंबद्धत्तप्पसंगादो। सा च समुकित्तणा ओघादेसभेदेण दुविहा । ओघेण ताव मिच्छत्तस्स अत्थि भुजगार-अप्प०अवडिदसंकामगा । सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०णवणोक० अत्थि भुज०-अप्प०-अवढि०-अवत्त संका० । एवं मणुसतिए। आदेसेण सव्वमग्गाणासु द्विदिविहत्तिभंगो। एवं समुक्कित्तिदाणं भुजगारादिपदाणं सामित्तपरूवण?मुत्तरसुत्तावयारो * मिच्छत्तस्स भुजगार०-अप्पदर-अवढिसंकामओ को होदि ? अएणदरो । ६७४२. आगे भुजगारका कथन अवसर प्राप्त है। उसमें सर्वप्रथम अर्थपद करना चाहिए, अन्यथा उसका स्वरूपविषयक निर्णय नहीं बन सकता। वह अर्थपद क्या है ? कहते हैं-अनन्तर पूर्व अतीत समयमें हुए अल्पतर संक्रमसे वर्तमान समयमें बहुतरका संक्रम करता है यह भजगारसंक्रम है। अनन्तर पूर्व अतीत समयमें हुए बहुतर संक्रमसे वर्तमान समयमें स्तोकतर स्थितियोंका संक्रम करता है यह अल्पतर संक्रम है। उतनी ही उतनी ही स्थितियोंका संक्रम करता है यह अवस्थितसंक्रम है तथा अनन्तर अतीत समयमें हुए असंक्रमसे वर्तमान समयमें संक्रम करता है यह अवक्तव्यसंक्रम है। इस अर्थपदके अनुसार भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंकी प्ररूपणा भुजगारसंक्रम कही जाती है। अब भुजगारसंक्रममें समुत्कर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनाको करके बादमें स्वामित्व करना चाहिए यह इस सूत्रका अभिप्राय है, क्योंकि समुत्कीर्तना किये बिना भुजगार आदिकके स्वामित्वका विधान करने पर असम्बद्धपनेका प्रसंग आता है। वह समत्कीर्तना ओघ और आदेशके भेदसे दो प्रकारकी है । ओघसे मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके संक्रामक जीव हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके संक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे सब मार्गणाओंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। इस प्रकार जिनकी समुत्कीर्तना की है ऐसे भुजगार आदि पदोंके स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका संक्रामक कौन जीव है ? अन्यतर जीव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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