Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० ५८ ] उत्तरपयडिटिदिभुजगारसंकमे एगजीवेण कालो
३६३ पंचिदिएसुप्पज्जमाणो विग्गहगदीए एगसमयअसण्णिहिदि बंधिऊण तदणंतरसमए सरीरं घेत्तूण सण्णिहिदि पबद्धो। एवं चदुसु समएसु णिरंतरं भुजगारबंधं कादूण पुणो तेणेव कमेण बंधावलियादिकंतं संकामेमाणस्स लद्धा मिच्छत्तभुजगारसंकमस्स उक्कस्सेण चत्तारि समया ।
* अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ६ ७५०. सुगमं । ® जहणणेणयसमओ, उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसद सादिरेयं ।
६ ७५१. एत्थ ताव एयसमओ उच्चदे। तं कथं ? भुजगारमवद्विदं वा बंधमाणस्स एयसमयमप्पदरं बंघिय विदियसमए भुजगारावहिदाणमण्णदरबंधेण परिणमिय बंधावलियवदिक्कमे बंधाणुसारणेव संकमेमाणयस्स अप्पदरकालो जहण्णेणेयसमयमेत्तो होइ । सादिरेयतेवट्ठिसागरोवमसदमेत्तुक्कस्सकालाणुगममिदाणिं कस्सामो। तं जहा-एको तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छाइट्ठी संतकम्मस्स हेट्ठदो बंधमाणो सव्वुकस्संतोमुहुत्तमेत्तकालमप्पदरसंकम काऊण पुणो तिपलिदोवमिएसुववण्णो । तत्थ वि अप्पदरमेव मिच्छत्तसंकममणुपालिय अंतोमुहत्तावसेसे सगाउए पढमसम्मत्तं पडिवण्णो अंतोमुत्तमप्पदरमेव संकामेदि । कथमुवसमसम्मत्तं पडिवण्णस्स अप्पदरसंकमो, तकालभंतरे सव्वत्थेवावहिदसरूवेण मिच्छत्तणिसेयद्विदीणं संकमोवलंभादो त्ति ? सच्चमेदं, जिसेयपहाणत्ते समवलंबिए
~~~~vvvvvvvvvvvv
उत्पन्न होकर विग्रहगतिमें एक समय तक असंज्ञीकी स्थितिका बन्ध किया। पुनः तदनन्तर समयमें शरीरको ग्रहणकर संज्ञीकी स्थितिका बन्ध किया। इस प्रकार चार समय तक निरन्तर भुजगार बन्ध करके पुनः उसी क्रमसे बन्धावलिके वाद संक्रम करनेवाले उसी जीवके मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमके उत्कृष्ट चार समय प्राप्त हुए।
* अल्पतरसंक्रामकका कितना काल है ? ६ ७५०. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है ।
६७५१. यहाँ सर्वप्रथम एक समयका कथन करते हैं। वह कैसे ? भुजगार या अवस्थित पदका बन्ध करनेके बाद एक समय तक अल्पतरपदका बन्ध करके तथा दूसरे समयमें भुजगार या अवस्थितपदके बन्धरूपसे परिणमन करके बन्धावलिके व्यतीत होने पर बन्धके अनुसार ही संक्रम करनेगले जीवके अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। अब साधिक एक सौ त्रेसठ सागरप्रमाण उत्कृष्ट कालका अनुगम करते हैं। यथा-सत्कर्मसे कम स्थितिका बन्ध करनेवाला कोई एक तिर्यश्च या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालतक अल्पतर संक्रम करके पुनः तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ पर भी मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमका ही पालन करके अपनी आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतरपदका ही संक्रम करता है।
शंका-उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके अल्पतरसंक्रम कैसे हो सकता है, क्योंकि उस काजके भीतर सर्वत्र ही मिथ्यात्वकी निषेकस्थितियोंका अवस्थितरूपसे ही संक्रम उपलब्ध होता है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org