Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 378
________________ ०५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिभुजगारसँकमे एयजीवे कालो ३६५ ताव मिच्छत्तस्स परपयडिसंकमो णत्थि, किंतु ओकडणासंकमो चेय । सो च उदयप्पहुडि आवलियासंखेज्जभागन्भहियदो आवलियमेत्तमिच्छत्तट्ठिदीणं णत्थि । किं कारणं ? जासिं पडीणमुदयसंभवो अत्थि तासिं चेव उदयावलियबाहिरद्विदीओ सव्वाओ ओकड्डिअंति, उदयावलियन्तरे णिक्खेवसंभवादो । जासिं पुण उदयो णत्थि तासिमुदयावलियबाहिरे आवलिया संखेज्जभागन्भहियआवलियमेत्तीणं द्विदीणमोकड्डणा ण संभवइ, उदयावलियब्यंतरे णिक्खेवसंभवाणुवलंभादो । तदो तत्थ बाहिरआवलियासंखेज्जभागभहियदो आवलियवज्जाणमुवरिमासेसट्ठिदीणमोकड्डणासंकमो त्ति घेत्तव्वं, आवलियमेतमइच्छाविय तदसंखेञ्जदिभागे तत्थ णिक्खेवणियमदंसणादो । एवं च संते सम्मामिच्छत्तद्धं सव्वमघट्ठिघिगलणे णप्पयरसंकर्म काऊण जाधे सम्मत्तं पडिवण्णो ताघे सम्मामिच्छाइट्ठी चरिमसमयओकड्डणासंकमादो सम्माइद्विपदमसमयपरपयडिसंकमो आवलि० असंखे०भागन्भहियआवलियमेत्तणिसेगेहि समहिओ होइ, परपयडिसंकमस्सुदयाव लियवहिन्भूदसव्वणिसेएस णिसेयाभावादो । तहा च सो भुजगार संक्रमो पढमसमयसम्माइ द्विपडिबद्धो अप्पदरविरोहिओ जायदि ति सम्मामिच्छत्तमेसो नेदुं ण सक्को ति । १७५२. अथवा णिसेयपरिहाणीए अप्पदरसंकमो एत्थ ण विवक्खिओ, किंतु कालपरिहाणीए । अत्थि च कालपरिहाणी, सम्मामिच्छाइट्ठिचरिमसमयमिच्छत्तट्ठिदि 1 होता । किन्तु अपकर्षणसंक्रम ही होता है । वह भी उदय समय से लेकर आवलिका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो वलिप्रमाण मिध्यात्वकी स्थितियोंका नहीं होता, क्योंकि जिन प्रकृतियोंका उदय सम्भव है उन्हीं प्रकृतियोंकी उदयवलिके बाहर की सभी स्थितियाँ संक्रमित होती हैं, क्योंकि उनका उदद्यावलिके भीतर निक्षेप सम्भव है । परन्तु जिन प्रकृतियोंका उदय नहीं है उनकी उदयावलिके बाहर आवलिके असंख्यातवें भाग अधिक एक अवलिप्रमाण स्थितियोंका अपकर्षण सम्भव नहीं है, क्योंकि उनकी उदयात्रलिके भीतर निक्षेपकी सम्भावना उपलब्ध नहीं होती । इसलिए वहाँपर श्रावलिके असंख्यातवें भाग अधिक दो आवलिप्रमाण स्थितियोंके सिवा ऊपरकी सब स्थितियोंका अपकर्षणसंक्रम ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर एक आवलिप्रमाण स्थितियोंको अतिस्थापनारूपसे स्थापित करके उसके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें निक्षेपका नियम देखा जाता है । और ऐसा होने पर सम्यग्मिथ्यात्व के सब कालतक अधः स्थितिगलना के साथ अल्पतरसंक्रम करके जब सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ तब सम्यग्मिध्यादृष्टिके अन्तिम समयमें होनेवाला परप्रकृतिसंक्रम एक आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक एक आवलिमें प्राप्त हुए निषेकों से अधिक होता है, क्योंकि परप्रकृतिसंक्रमका उदयावलिके बाहर स्थित सब निषेकोंमें होनेका निषेध नहीं है । और सम्यग्मिध्यात्व में ले जाने पर सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयसे सम्बन्ध रखनेवाला वह भुजगार संक्रम अल्पतरसंक्रमका विरोधी हो जाता है, इसलिए ऐसे जीवको सम्यग्मिथ्यात्व में ले जाना शक्य नहीं है । - ७७५२. अथवा यहाँ पर निषेकोंका परिहानिरूप अल्पतरसंक्रम कालपरिहानिरूप अल्पतर संक्रम यहाँपर विवक्षित है और यहाँ कालकी सम्यग्मिथ्या दृष्टिके अन्तिम समयमें प्राप्त हुई मिध्यात्वकी स्थिति के प्रमाणसे प्रथम समयवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only विवक्षित नहीं है । किन्तु परिहानि है ही, क्योंकि www.jainelibrary.org

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