Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 348
________________ गा० ५८ ] उत्तरप डिट्ठदिकमे एयजीवेण अंतरं ६७४. एतो अंजहण्णडिदिसंकमंतरं देसामासयसुत्तेणेदेणेव सूचिदमिदाणिमणुमग्गइस्लामो - मिच्छ० अज० णत्थि अंतरं । सम्म० सम्मामि० अज० जह० एगसमओ, उक० उपोग्गलपरियङ्कं । अणंताणु ०४ अज० जह० अंतोमु०, उक्क० dura सागरो देणाणि बारसकरणवशोक, अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० 1 एवमोघो समत्तो । १६७५. आदेसेण सव्वणेरइय० - सव्वतिरिक्ख- मणुसअपज ० - सव्वदेवा त्ति हिदिविहत्तिभंगो | मणुस ३ मिच्छ० जह० अज० णत्थि अंतरं । सम्मा० - सम्मामि० जह० णत्थि अंतरं । अजह० ज० एगस०, उक्क० तिष्णि पलिदो० पुव्यको डिपुघत्तेण $ ६७४. अब इसी देशामर्पक सूत्र से सूचित होनेवाले अजघन्य स्थितिसंक्रमके अन्तरकालका इस समय विचार करते हैं - मिध्यात्व के अजघन्य स्थितिसंकामकका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व अजघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल_उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क के अजघन्य स्थिति संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल' उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। बारह कषाय और नोकषायोंके अजघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । ३३५ विशेषार्थ —मिथ्यात्यकी क्षपणा होनेके पूर्व तक उसका सर्वदा अजघन्य स्थितिसंक्रम होता रहता है, इसलिए उसका निषेव किया है । सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यथाविधि कमसे कम एक समय के लिए और अधिक से अधिक उपार्धंपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालके लिए अन्तर होकर जघन्य स्थितिसंक्रम सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद् गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धचतुष्कका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक से अधिक कुछ कम दो छ्यासठ सागर कालतक विसंयोजना होकर अभाव रहता है । तथा विसंयोजनाके पूर्व में तथा संयोजना होनेके बादमें इनका अजघन्य स्थितिसंक्रम होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर कहा है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उपशमना होनेके बाद जो एक समय वहीं रुककर दूसरे समय में मरकर देव हो जाते हैं उनके इन प्रकृतियों के अजघन्य स्थिति संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है और जो इनकी 'उपशमना करके तथा उपशमश्रेणिसे उतरते समय यथास्थान पुनः इनका अजघन्य स्थितिसंक्रम करने लगते हैं उनके इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । } इस प्रकार श्रोघप्ररूपणा समाप्त हुई । $ ६७५. आदेश से सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में स्थितिविभक्ति के समान भंग है | मनुष्यत्रिकमें मिध्यात्वके जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य स्थितिसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन ल्यप्रमाण है । अनन्तानुबन्धोचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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