Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 349
________________ ३३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ महियाणि । अणंताणु०४ ज० जह० अंतोमु०', उक्क० सगढिदी। अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । बारसक०-णवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णु० अंतोमु० । एवं जाव० । ®ाणाजीवेहि भंगविचमओ दुविहो उकस्सपदभंगविचमो च जहएणपदभंगविचमो च। ६६७६. तत्थुक्कस्सपदभंगविचओ णाम उकस्सट्ठिदिसंकामयाणं पवाहवोच्छेदसंभवासंभवपरिक्खा । तहा जहण्णो वि वत्तव्यो। एदेसिं च दोण्णमट्ठपदं–जे उक्कस्सद्विदीए संकामया ते अणुक्कस्सद्विदीए असंकामया । जे अणुक्कस्सहिदीए संकामया ते उक्कस्सियाए द्विदीए असंकामया। एवं जहण्णयं पि वत्तव्वं । एदमट्ठपदं काऊण सेसपरूवणा कायव्वा त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमाह___तेसिमट्टपदं काऊण उक्कस्सयो जहा उक्करसहिदिउदीरणा तहा कायव्वा। अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है तथा अजघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है और इसके प्रारम्भमें तथा अन्तमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है । कोई मनुष्य कृतकृत्यवेदक या क्षायिकके सिवा अन्य सम्यक्त्व के साथ मरकर मनुष्योंमें नहीं उत्पन्न होता । वेदकसम्यग्दृष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि तिर्यश्च भी मरकर मनुष्योंमें नहीं उत्पन्न होता, अतः मनुष्यत्रिकमें अनन्तनुबन्धीचतुष्कके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होता है, इसलिए इनमें यह उक्त कालप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है । * नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है-उत्कृष्ट पदभंगविचय और जघन्य पदभंगविचय। ६६७६. यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंके प्रवाहका व्युच्छेद सम्भव है या असम्भव है इसकी परीक्षा करना उत्कृष्ट पदभंगविचय कहलाता है । उसी प्रकार जघन्यका भी कथन करना चाहिए । इन दोनोंका अर्थपद-जो उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक होते हैं और जो अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक हैं वे उत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक होते हैं। इसी प्रकार जघन्यके आश्रयसे भी कथन करना चाहिए। इसप्रकार अर्थपद करके शेष प्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उनका अर्थपद करके जिस प्रकार उत्कृष्ट उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है उस प्रकार उत्कृष्टपदभंगविचय करना चाहिए। १. श्रा प्रतौ ज० अंतोमु० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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