Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 368
________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिसंकमे अप्पाबहुअं ३५५ कसाय-भय-दुगुंछाणं जहण्णढिदिसंकमो णेरइएसु सरिसो चेव होइ, विदियविग्गहे गलिदसेसजहण्णहिदिसंतकम्मं कसाय-णोकसायाणं समाणभावेणावट्ठिदं घेत्तूण पुणो वि आवलियमेत्तकालं गालिय दुसमयाहियावलियणेरइयम्मि जहण्णसामित्तविहाणादो । * मिच्छत्तस्स जहणणहिदिसंकमो विसेसाहिओ। ६७३१. कुदो ? पलिदोवमसंखेजभागूणसागरोवमसहस्सचदुसत्तभागमेत्तकसायजहण्णहिदिसंकमादो किंचूणसागरोवमसहस्समेत्तमिच्छत्तजहण्णढिदिसंकमस्स विसेसाहियत्तदंसणादो। एवमेसो सुत्ताणुसारेण णिरओघो परूविदो । एत्तो उच्चारणाहिप्पायमस्सिऊण वत्तइस्सामो । तं जहा___७३२. णेरइएसु सव्वत्थोवो सम्मत्त० जहद्विसंक० । जट्ठिदिसं० असं०गुणो। अणंताणु०४ जह द्विदिसंक० असंखे०गुणो। सम्मामि० जह० असंखेगुणो। पुरिसवेद० जहहिदिसं. असंखे गुणो। इत्थिवेद० जह० द्विदिसं० विसेसाहिओ। हस्स-रइ० जहट्ठिदिसं० क्सेि० । अरदि-सोग० जह० विसेसा० । णस० जह० विसे० । बारसक०-भय-दुगुंछाणं जह० हिदिसंक० विसे० । मिच्छ० जह० ट्ठिदिसं० विसेसाहिओ त्ति। $ ७३३. एत्थुवउजंतयमद्धप्पाबहुअं । तं जहा—सव्वत्थोवा पुरिसवेदबंधगद्धार । इत्थिवेदबंधगद्धा संखेजगुणा ४ । हस्स-रइबंधगद्धा संखेजगुणा १६ । अरदि-सोगबंधगद्धा समान ही होता है, क्योंकि कषायों और नोकषायोंके गल कर शेष रहे जघन्य स्थितिसत्कर्मको समानरूपसे अवस्थित ग्रहण कर तथा फिर एक आवलि कालको गलाकर नारकीके दो समय अधिक एक आवलि कालके अन्त में जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। * उससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। ६७३१. क्योंकि एक हजार सागरके पल्यके संख्यातवें भाग कम चार भागप्रमाण कषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रमसे मिथ्यात्वका कुछ कम एक हजार सागरप्रमाण जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक देखा जाता है। इस प्रकार यह सूत्रके अनुसार सामान्यसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिसंक्रमके अलबहुत्वका कथन किया । अब उच्चारणाके अभिप्रायानुसार इसे बतलाते हैं । यथा ६७३२. नारकियोंमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसंक्रम सबसे स्तोक है। उससे यस्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। उससे अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। उससे पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुणा है। उससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है । उससे हास्य-रतिका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अरति-शोकका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे बारह कषाय. भय और जगप्साका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। उससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। .६७३३. अब यहाँ उपयुक्त काल अल्पबहुत्वको बतलाते हैं । यथा-पुरूषवेदका बन्धककाल सबसे स्तोक है २। उससे स्त्रीवेदका बन्धककाल संख्यातगुणा है ४ । उससे हास्य-रतिका बन्धककाल संख्यातगुणा है १६ । उससे अरति-शोकका बन्धककाल संख्यातगुणा है ४८। उससे नपुसकवेदका www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International

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