Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 367
________________ ३५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६७३०. १०० । केत्तियमेत्तेण ? आवलियमेत्तेण । कुदो एवं ? बारसक० जह० हिदिसंकम पडिच्छिय आवलियादीदस्स भय-दुगुंछाणं जहण्णसामित्तविहाणादो । तं जहा-असण्णिचरिमावत्थाए सगपाओग्गसव्वजहण्णहदसमुप्पत्तियट्ठिदिसंतकम्मेण समाणं बंधमाणस्स कसायट्ठिदिपमाणं संदिट्ठीए एत्तियमिदि घेत्तव्वं १०४ । संपहि एत्तियमेत्तमसण्णिचरिमावलियाए विदियसमयम्मि बंधियूण बंधावलियादिकंतमेदं णेरइयविदियविग्गहे भय-दुगुंछासु पडिच्छदि त्ति तकालपडिच्छिदावलियूणकसायट्ठिदिसमाणमेत्तियं होइ १०० । पुणो एदं रइओ सरीरं घेत्तूणावलियमेत्तं गालिय भय-दुगुंछाणं जहण्णसामित्तं पडिवजदि त्ति तत्कालियजहण्णट्ठिदिसंकमो भय-दुगुंछाणमेत्तिओ होइ ९६ । कसायाणं पुण संतसमाणट्ठिदिबंधो असण्णिपच्छायदणेरइयविदियविग्गहविसओ एत्तियमेत्तो होई'१०४। पुणो गालिदावलिओ एत्तियमेत्तो होऊण १०० जहण्णसामित्तमणुहवदि त्ति सिद्धं पुविल्लादो एदस्सावलियब्भहियत्तं । एवमेसो चुण्णिसुत्ताहिप्पाओ परूविदो, तदहिप्पारण असण्णिपच्छायदणेरइयस्स दुसमयाहियावलियमंतरे सव्वत्थेव बारसकसायभय-दुगुंछाणं जहण्णसामित्तावलंबणे विरोहाभावादो। उच्चारणाहिप्पाएण पुण बारस 5७३०. १०० । कितना अधिक है ? आवलिमात्र अधिक है। शंका-ऐसा क्यों है ? समाधान—क्योंकि भय-जुगुप्सामें बारह कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम करके एक आवलिके बाद भय-जुगुप्साके जघन्य स्वामित्वके प्राप्त होनेका विधान है। यथा-असंज्ञीकी अन्तिम अवस्थामें अपने योग्य सबसे जघन्य हतसमुत्पत्तिक स्थितिसत्कर्मके समान बन्ध करनेवाले उसके जो कषायकी स्थितिका प्रमाण प्राप्त होता है वह संदृष्टिकी अपेक्षा इतना १०४ ग्रहण करना चाहिए। अब इतनीमात्र कषायकी स्थितिको असंज्ञीकी अन्तिम श्रावलिके दूसरे समयमें बाँधकर बन्धावलिसे रहित इसे नारकी जीवके दूसरे विग्रहमें भय-जुगुप्सामें संक्रमित करता है, इसलिए उस कालमें जो संक्रमित हुआ है वह एक आवलिकम कषायकी स्थितिके समान इतना १०० होता है। पुनः नारकी जीव शरीरको ग्रहण कर इसमेंसे आवलिमात्रको गलाकर भयजुगुप्साके जघन्य स्वामित्वको प्राप्त होता है, इसलिए उस समयमें भय-जुगुप्साका जघन्य स्थितिसंक्रम इतना ९६ होता है। परन्तु असंज्ञो पर्यायसे आकर उक्त नारकी जीवके दूसरे विग्रहसे सम्बन्ध रखनेवाला सत्कर्मके समान कषायोंका जघन्य स्थितिबन्ध इतना १०४ होता है। पुनः एक आवलिके गलनेके बाद इतना १०० होकर जघन्य स्वामित्वको प्रात होता है, इसलिए भयजुगुप्साके जघन्य स्थितिसंक्रमसे इसका एक वलि अधिक जघन्य स्थितिसंक्रम सिद्ध हुआ। इस प्रकार यह चूर्णिसूत्रका अभिप्राय कहा, क्योंकि उसके अभिप्रायानुसार असंज्ञी पर्यायसे आकर नरकमें उत्पन्न हुए नारकी जीवके दो समय अधिक एक आवलिके भीतर सभी जगह बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन करने पर कोई विरोध नहीं आता। परन्तु उच्चारणाके अभिप्रायानुसार बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसंक्रम नारकियोंमें १. ता प्रतौ -मेत्तोहितो ( होइ), आ प्रतौ -मेत्तोहिंतो इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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