Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 358
________________ गा०५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिसंकमे सण्णियासो ३४५ सम्मामिच्छत्तेण सह जहा णीदाणि तहा णेदव्वाणि । एवं पढमाए पुढवीए । तिरिक्खेसु एवं चेव । णवरि बारसक० जह० टिदिसंका० भय-दुगुंछ० णियमा संका० । तं तु समयुत्तरमादि कादूण जाव आवलियब्भहियं ति । भय-दुगुंछ० जह० द्विदिसंका० मिच्छ०-बारसक० । तं तु अज० असंखे०भागब्भहियं । णत्थि अण्णो वियप्पो । ६९४. विदियादि जाव सत्तमा त्ति हिदिविहत्तिभंगो। णवरि अणंताणु०४ जह० द्विदिसंका० मिच्छ०-बारसक०णवणोक० णियमा अज० संखेज भागभहियं । पंचिंतिरिक्ख०तिय० पढमपुढविभंगो । णवरि भय-दुगुंछा० जह० द्विदिसं० मिच्छ०बारसक० तं तु अज० असंखे०भागब्भ० संखे०भागब्भ० णत्थि । जोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। पंचिंतिरिक्ख०अपज० जोणिणीभंगो। णवरि अणंताणु०४ सह कसाएहि भणियव्वं । एवं मणुसअपज०।। ६९५. मणुसतिए ओघं । णवरि मणुसिणीसु इत्थिवेद० जहण्णढिदिसंका. णउंसय० णत्थि । णउंस० जह० द्विदिसंका इत्थिवेद० णियमा अज० असंखेगुणब्भः । पुरिसवेदस्स छण्णोकभंगो। देवाणं णारयभंगो। एवं भवण-वाणवें । णवरि साथ जिस प्रकार ले गये हैं. उस प्रकार ले जाना चाहिए। इसी प्रकार पहिली पृथिवीमें जानना चाहिए। तिर्यश्चोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिका संक्रामक जीव भय और जुगुप्साका नियमसे संक्रामक है। किन्तु वह एक समय अधिकसे लेकर एक आवलि अधिक तक स्थितिका संक्रामक है। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका संक्रामक जीव मिथ्यात्व और बारह कषायोंका नियमसे संक्रामक है । किन्तु वह असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका संक्रामक है। यहाँ अन्य . विकल्प नहीं है। ६६६४. दुसरीसे सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें स्थितिविभक्तिके समान भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबग्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका संक्रामक है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें प्रथम पृथिवीके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका संक्रामक जीव मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिका भी संक्रामक है और अजघन्य स्थितिका भी संक्रामक है। यदि अजघन्य स्थितिका संक्रामक है तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका संक्रामक है। संख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका संक्रामक नहीं है। योनिनी तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके साथ कषायोंको कहना चाहिए । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें कहना चाहिए। ६६५. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिके संक्रामक जीवके नपुंसकवेद नहीं है। नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिका संक्रामक जीव स्त्रीवेदकी नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका संक्रामक है। पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। देवोंमें नारकियोंके सम्पन्न भंग है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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